Votership


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खण्ड-तीन

अध्याय- दस

10.  वोटरषिप के लिए कारित प्रयासों का इतिहास

    1. प्रमुख याचिकाकर्ता भरत गांधी द्वारा कारित प्रयास

    (क) प्रमुख याचिकाकर्ता का संक्षिप्त परिचय       

    (ख) शिक्षा व्यवस्था में सुधार के लिए -'नेफर     

    (ग) वोटषिप'-जीवन  के अनुभवो का निश्कर्श     

    (ड.)  14 दिनों का प्राणघातक अनषन   

    (च) अध्यात्मिक ज्ञान के क्षेत्र में नये निश्कर्शों का योगदान स्वरचित

      साहित्य के माध्यम से               

    (छ) वैष्वीकरण के युग में अपेक्षित भारत के संविधान में आवष्यक

      संषोधन प्रस्ताव का निर्माण             

    (ज) मजदूरों पर अत्याचार के खिलाफ 83 दिनों की जेल यात्रा  

    (झ)  राज्य व्यवस्था में सुधार के लिए आर्थिक आजादी परिसंघ

      नामक संगठन का गठन             

    (ञा) लोकसभा में याचिका के लिए प्रमुख याचिकाकर्ता के रूप

      में भूमिका 

 

    वोटरषिप के लिए कारित प्रयासों का इतिहास

 

1.   प्रमुख याचिकाकर्ता - भरत गांधी द्वारा कारित प्रयास

(क)  संक्षिप्त परिचय-

            (i)    यह कि प्रमुख याचिकाकर्ता भरत गांधी के जन्म सन 1969 से लेकर सन् 2000 तक की जीवन यात्रा का संक्षिप्त परिचय जानने के लिए इस याचिका के संलग्नक-12.1,12.2 व साक्ष्य-एक का संदर्भ लें। 

              (ii)    यह कि प्रमुख याचिकाकर्ता को षैक्षिक जीवन के अंतिम चरण में अमीरी व गरीबी के कानूनी आरक्षण की वंषानुगत व्यवस्था खलने लगी थी।  अमीर के बेटे को बिना योग्यता की जांच किये उत्ताराधिकार कानून से अमीर बनाने व गरीब के बेटे की योग्यता की बिना जांच किये इसी कानून से गरीब बनाने की अर्थव्यवस्था व राजव्यवस्था की मौजूदगी देखकर याचिकाकर्ता को व्यवस्था में विरोधाभास दिखा।  वह विरोधाभास व विडम्बना यह थी कि डी.एम., सी.एम., पी.एम. के पदों को वंषानुगत नहीं बनाया गया है, जबकि इन तीनों की मूल प्रेरणा धन संग्रह ही होता है।  साध्य यानी धन की सत्ताा वंषानुगत है, प्रषासन व राजसत्ताा पर लोकतंत्र का प्रयोग चल रहा है।  प्रमुख याचिकाकर्ता को यही दर्ुव्यवस्था समाज में बढ़ रहे भ्रश्टाचार, धन लिप्सा, अपराध, उपभोक्तावाद, नषाखोरी, कुंठा ग्रस्तता आदि समस्याओं की जननी लगी।  प्रमुख याचिकाकर्ता ने निश्कर्श निकाला कि जब धन सत्ताा वंषानुगत है, उसे बेटे को ही दिया जा सकता है तो पद की सत्ताा के लिए कोई आदमी इमानदारी वर् कत्ताव्यनिश्ठा से काम क्यों करेगा अगर यह मान्यता सही है, व समाज द्वारा स्वीकार्य है कि-'हर व्यक्ति अपने बच्चों के लिए काम करता है, तो निष्चित रूप से राजनीति व प्रषासन के क्षेत्र में काम करने वाले लोग भी अपने बच्चों के लिए काम कर रहे हैं।  पद वंषानुगत नहीं है, इसलिए वे वास्तव में काम करते हैं धन के लिए, बताते हैं कि पद की जिम्मेदारी निभा रहा हूँ ।  कथनी-करनी का यह अन्तर, मिथ्यावाद के बोलबाला का सीधा संबंध उत्ताराधिकार के कानून से है । यह बात प्रमुख याचिकाकर्ता को इलाहाबाद विष्वविद्यालय से स्नातक की डिग्री लेते ही समझ में आ चुकी थी किन्तु तब तक सिविल सेवा के क्षेत्र में अधिकारी बनने के कैरियर से उसका मोहभंग नहीं हुआ था। 

              (iii)   यह कि प्रमुख याचिकाकर्ता प्रषासनिक अधिकारी बनकर जीवन यापन करना चाहता था।  स्नातक के तुरंत बाद दिये गये उ.प्र. सिविल सेवा की प्राथमिक परीक्षा में आयोग द्वारा सफल घोशित भी किया जा चुका था, किन्तु दो घटनाओं ने याचिकाकर्ता को प्रषासन में जाने से मोह भंग कर दिया।  पहली घटना आरक्षण के आन्दोलन से जुड़ी थी। 

       सन् 1991-92 में जब प्रषासनिक सेवाओं में आरक्षण की खिलाफत में व समर्थन में छात्र आंदोलन चल रहे थे तो याचिकाकर्ता दोनों में भाग नहीं ले सका।  परीक्षा में 50 नम्बर पाने वाला पुरस्कार पाये, और 80 नम्बर पाने वाला दण्ड पाये; आरक्षण की यह व्यवस्था प्रमुख याचिकाकर्ता के गले नहीं उतर रही थी। इसलिए पिछड़े वर्ग के परिवार में जन्म लेने के बावजूद आरक्षण समर्थक आंदोलनोें से याचिकाकर्ता दूर रहा और इसीलिए आरक्षण समर्थक दोस्तों से दोस्ती खोनी पड़ी।  प्रमुख याचिकाकर्ता इलाहाबाद सिविल लाइन्स में हाईकोर्ट के अवकाष प्राप्त न्यायाधीष के मकान के जिस कमरे में किराये पर रहता था, उसी कमरे में सवर्ण समुदाय के दो अन्य विद्यार्थी भी पार्टनर के रूप में रहते थे।  एक दिन प्रमुख याचिकाकर्ता 3 दिन के लिए अपने गष्ह जनपद जौनपुर चला गया।  जब तीन दिन बाद लौट कर देखा, तो सवर्ण पार्टनर कमरा छोड़कर जा चुके थे, याचिकाकर्ता का सामान कमरे में तितर-बितर पड़ा था। बाद में पता चला कि उसके सवर्ण साथी याचिकाकर्ता जैसे 'पिछड़े आदमी' के साथ नहीं रहना चाहते थे।  याचिकाकर्ता की न्याय की मान्यताओं ने पिछड़े वर्ग के दोस्तों को पहले ही छीन लिया था, अब सवर्ण दोस्तों ने भी प्रमुख याचिकाकर्ता से किनारा कर लिया। 

              (iv)   उक्त घटना ने षैक्षिक दर्ुव्यववस्था के प्रति प्रमुख याचिकाकर्ता के मन में आक्रोष भर दिया।  प्रमुख याचिकाकर्ता के उक्त दोनों सवर्ण समुदाय के मित्रों पर जरा सा भी क्रोध पैदा नहीं हुआ, अपितु उन पर दया आई।  दया इस बात पर आई कि किस तरह एक आन्दोलन ने दो मित्रों को जुदा-जुदा कर दिया।  इस घटना ने याचिकाकर्ता के हृदय को घायल जरूर किया, षैक्षिक व्यवस्था के प्रति मोहभंग भी किया किन्तु फिर भी कैरियर के प्रति लगाव खत्म नहीं हुआ था।  इस दिषा में दूसरी घटना तब घटी जब प्रमुख याचिकाकर्ता अपने जान-पहचान के उन मित्रों के निवास पर गया जो संघ लोक सेवा आयोग का जीवन का अंतिम परीक्षाफल अखबार में देखकर आये थे और असफल हो गये थे । उनके परिवार में ऐसा लगता था, जैसे घर में कोई मौत हो गई हो।  अपने मित्रों के परिवारों में यह मातम देखकर याचिकाकर्ता को लगा, कि मौत जीवन में एक बार नहीं आती, जीते जी कई बार आती है।  मौत के बाद परिवारजन की आंखों से निकलने वाले आंसू और नौकरी पाने की अंतिम आषा को तोड़ देने वाला अखबार देखने पर आंख से निकलने वाले आंसू में गजब का साम्य था।  याचिकाकर्ता पहली बार मौत की घटना पर चिंतन करने के लिए बाध्य हुआ था।  उसने नतीजा निकाला कि वाकई एक व्यक्ति जब आई.ए.एस. नहीं बन पाता, या डाक्टर, इंजीनियर नहीं बन पाता, और जीवन का अंतिम परीक्षाफल सामने आता है तो उसकी मौत हो जाती है।  यह मौत एक आई.ए.एस. की आत्मा की मौत है।  षरीर जीवित रह गई, आत्मा मर गई।  याचिकाकर्ता ने इसी तरह की मौत का मातम देखा- अपने कुछ मित्रों, उनके मां-बाप, भाइयों व बहनों की आंखों में ।  यह दृष्य देखकर याचिकाकर्ता स्तब्ध रह गया।  उसे लगा कि यह मौत है, या हत्याप्रमुख याचिकाकर्ता ने महसूस किया कि इस हत्यारे की जगह उस समय वह अपने आपको खड़ा पायेगा, जब उसे स्वयं आई.ए.एस. की मेरिट लिस्ट में जगह मिलेगी।  उसे लगा कि जब वह आई. ए. एस. बनेगा तो उसका परिवार खुषियां मनायेगा, लेकिन उसी की वजह से एक आदमी मेरिट लिस्ट से बाहर हो जायेगा और उसके घर में मातम घटेगा।  अपने मित्रों व परिचितों के साथ घटने वाली इन एक पर एक दुर्घटनाओं ने याचिकाकर्ता के और आई.ए.एस. की नौकरी के बीच लगातार पतले होते जा रहे धागे को एक झटके में तोड़ दिया।  अब याचिकाकर्ता ने तय किया कि वह जीने के लिए कोई ऐसा काम करेगा, जिससे उसके कारण किसी की नौकरी न जाये, किसी की रोजी-रोटी न छिने।  किसी के जीवन की कीमत पर न जीने का सत्याग्रह प्रमुख याचिकाकर्ता को सन् 1993 से लेकर 2005 तक के बारह वर्शों में अनेक अनुभवों से गुजारते हुए संसद की याचिका समिति के दरवाजे तक ले आया।

              (v)    यह कि अपना षैक्षिक जीवन सन् 1992 में समाप्त करके षिक्षा व्यवस्था में सुधार करने के लिए याचिकाकर्ता ने नेषनल फाउण्डेषन आफ एजुकेषन एण्ड रिसर्च, संक्षेप में 'नेफर' नाम का संगठन इलाहाबाद के अकादमिक लोगों के सहयोग से कायम किया, जिसके बारे में ज्यादा जानकारी के लिए इसी अध्याय के - 10.1(ख) का संदर्भ ग्रहण करें। 

              (vi)   यह कि याचिकाकर्ता आरक्षण के समर्थन में हुए आंदोलनों में तो इसलिये भाग नहीं ले सका कि परीक्षा में ज्यादा अंक पाने वाले विद्यार्थी काs असफल घोशित करना व कम अंक पाने वाले को सफल घोशित करना, प्रमुख याचिकाकर्ता को गलत लगा।  किन्तु आरक्षण के विरोध में चल रहे आंदोलनों में हिस्सा इसलिए नहीं लिया कि यह आंदोलन वंषानुगत अधिकारों की वकालत भी साथ-साथ कर रहा था।  ऊँची जाति में पैदा हुए आदमी को ऊँचा मानने व नीची जाति में पैदा हुए आदमी को नीचा मानने को याचिकाकर्ता का मन तैयार नहीं था। चूंकि आरक्षण के समर्थन व विरोध दोनों ओर से चल रहे आंदोलन कर्म की बजाय जन्म को सम्मान देने के लिए चल रहे थे, इसलिए प्रमुख याचिकाकर्ता किसी की तरफदारी न कर सका।  सामाजिक ऊँच-नीच से जुड़े आरक्षण आंदोलन ने और आर्थिक ऊँच-नीच से जुड़े उत्ताराधिकार के कानूनों ने प्रमुख याचिकाकर्ता को आत्मचिंतन व आत्म पहचान के लिये विवष किया।  उसे लगा कि याचिकाकर्ता भले ही पिछड़े वर्ग के यादव परिवार में जन्म लिया हो, किन्तु चेतना से वह इस वर्ग का पक्षपाती नही है । इसीलिए याचिकाकर्ता आरक्षण समर्थक आंदोलनों में षामिल नहीं हो सका।  याचिकाकर्ता सामाजिक न्याय का समर्थक है, इसलिए वह आरक्षण विरोधियों का साथ भी नहीं दे सका; क्योंकि वे उत्ताराधिकार के खिलाफ कोई आंदोलन नहीं चला रहे थे।  यह दृष्य देखकर याचिकाकर्ता को लगा कि मन से वह न तो पिछड़े वर्ग का सदस्य है न अगड़े वर्ग का; और जन्म लेने पर उसका कोई वष नहीं था।  जब याचिकाकर्ता को अपने को जातिपुत्र के रूप में परिचय कराके स्वयं को पिछड़ा वर्ग का बताता, तो याचिकाकर्ता को लगता था जैसे वह किसी मिथ्याप्रचार का साथ दे रहा हो ।  चूंकि सवर्ण समुदाय के परिवार में उसका जन्म नहीं हुआ था, इसलिए सवर्ण समाज का सदस्य बताना सीधे झूठ बोलना होता। ऐसे धार्म संकट में याचिकाकर्ता को यह विचार सूझा कि याचिकाकर्ता वास्तव में कर्म से जातिपुत्र की बजाय राश्ट्रपुत्र है।  इसलिए उसे अपने नाम के साथ जातिपुत्र सूचक षब्द जोड़ने की बजाय राश्ट्रपुत्र सूचक षब्द जोड़ना चाहिए। बाद में याचिकाकर्ता को इससे एक लाभ और दिखाई दिया, कि जन्म के आधार पर ऊंच-नीच, अमीर-गरीब की कुरीति व इस कुरीति को ताकत देने वाले अत्याचारी कानूनों को खत्म करने से याचिकाकर्ता केवल गरीब बाप का बेटा ही नहीं रह जायेगा, राश्ट्रपिता का बेटा भी हो जायेगा। ऐसा होने से राश्ट्रपुत्र की हैसियत से उसे राश्ट्र की आर्थिक विरासत में अपना हिस्सा मिल सकता है, जो उसकी जीविका उपार्जन का साधन बन सकता है।  इस साधन से वह बिना किसी की रोजी-रोटी छीने अपना जीवन जीने की मंषा भी पूरी कर सकता है।  किन्तु इतना समाधान होने पर भी एक समस्या तब पैदा हो गई, जब यह पता चला कि अगर याचिकाकर्ता अपने नाम के साथ राश्ट्रपुत्र सूचक षब्द 'गांधी' जोड़ता है, तो खतरा यह है कि षायद फिर भी वह जाति के दलदल से ऊपर न उठ पाये, क्योंकि लोग उसे गुजरात का तेली जाति का आदमी समझ सकते हैं।  याचिकाकर्ता ने इसका हल यह निकाला कि वह इन दोनों अर्थों के लिये दो वर्तनी (स्पेलिंग) के षब्दों का प्रयोग करेगा ।  राश्ट्रपुत्र सूचक अर्थ के लिये-'गांधी' षब्द को अपने नाम के साथ जोड़ा।  अपनी निजी सुविधा व इमानदारी को ध्यान में रखते हुए चंद्रबिंदी वाला 'गाँधी' तेलियों के लिए सुरक्षित कर दिया, व सूर्यबिंदी वाला 'गांधी' स्वयं अपने प्रयोग में लिया।  इस आषय की सार्वजनिक घोशणा पहली बार सन् 1994 की जनवरी में उस दिन किया गया ।  जिस दिन याचिकाकर्ता पूरे 25 वर्श की उम्र का हो गया।  टाइम्स ऑफ इण्डिया जैसे तमाम राश्ट्रीय अखबारों में यााचिकाकर्ता के इस संषोधित नाम से पहली बार 13 जनवरी को खबरें प्रकाषित हुई। इसके पहले सभी अखबार याचिकाकर्ता के वक्तब्य उसके पुराने नाम से छापते थे।  याचिकाकर्ता ने समाजोपयोगी परम्परा षुरू करने के लिये 20 जनवरी सन् 2001 को उस समय भी जेल में अपने पिता के नाम की जगह राश्ट्रपिता का नाम लिखवाया, जब उसे राश्ट्र की सुरक्षा के लिए खतरनाक बताकर मेरठ के जिलाधिकारी ने गिरफ्तार करके लम्बे समय के लिए जेल में डाल दिया था।  मामले का विस्तृत विवरण जानने के लिये याचिका के इसी अध्याय के पैरा - 1(ज) का संदर्भ ग्रहण करें।

              (vii)   यह कि याचिकाकर्ता ने षैक्षिक व्यवस्था में सुधार के लिये 'नेफर' नामक संगठन के माध्यम से लगातार 1992 से लेकर 1995 तक अथक परिश्रम करके षिक्षा व्यवस्था में सुधार के लिए कुछ नतीजे निकाले, किन्तु इन नतीजों का कार्यान्वयन संसद की मंजूरी के बिना संभव नहीं था।  जब राजनेैतिक दलों के कुछ कार्यकर्ताओं से बातचीत किया गया तो षैक्षिक सुधार के 'नेफर' प्रस्ताव में उन्होंने अपने, अपनी पार्टी के लिए नोट या वोट की संभावनायें तलाषना चाहा।  याचिकाकर्ता को स्पश्ट समझ में आ गया, कि जब तक संसद में इस व्यवस्था के समर्थक लोग नहीं जाते, तब तक षिक्षा की व्यवस्था में सुधार करना संभव नहीं है।  इस निश्कर्श के बाद याचिकाकर्ता को षिक्षा सुधार का कार्य स्थगित करके राजव्यवस्था व अर्थव्यवस्था पर सोंचने के लिये मजबूर होना पड़ा।

              (viii)   प्रमुख याचिकाकर्ता को उक्त अनुभवों से लगा कि उसे कुछ समय तक एकान्तवास करके लेखन कार्य करना चाहिये, और जिस प्रकार षिक्षा व्यवस्था में सुधार का एक प्रारूप तैयार किया, उसी प्रकार अर्थव्यवस्था व राजव्यवस्था में भी सुधार का प्रारूप तैयार करना चाहिए।  षिक्षा पर कार्य करते-करते याचिकाकर्ता को यह भी समझ में आया कि सरकार की षिक्षा व्यवस्था एक साधन के रूप में काम करती है, साध्य तो अर्थव्यवस्था व राजव्यवस्था ही होती है।  इस निश्कर्श के बाद याचिकाकर्ता ने इलाहाबाद षहर छोड़कर मेरठ प्रस्थान करने का फैसला किया।  मेरठ में लगातार 1995 से 1998 तक यााचिकाकर्ता ने एकांतवास करके वैकल्पिक अर्थ व्यवस्था व राजव्यवस्था पर कई पुस्तकें लिखा ।  इसमें से कुछ पुस्तकों का प्रकाषन हो जाने पर आर्थिक आज़ादी आंदोलन परिसंघ नामक एक जनसंगठन स्वत: स्फूर्त ढ़ंग से बना, जो अपने जन्म के 5 वर्शों बाद इस याचिका को लोकसभा में प्रस्तुत करने की कार्यवाही कर रहा है।  पुस्तकों के नामों की जानकारी के लिए इस याचिका के अध्याय-12.2 का संदर्भ इस संषोधन के साथ ग्रहण करें कि याचिकाकर्ता ने सन् 2001 में अपने जेल प्रवास के दौरान 'जनोपनिशद' के नाम से एक पुस्तक और लिखा, तथा जेल यात्रा के पष्चात दिल्ली में भजनपुरा की बजाय वापस मेरठ में ही रहने लगा। 

              (ix)   यह कि यद्यपि प्रमुख याचिकाकर्ता का पैत्रिक संबंध ग्राम-आनापुर पो. मछली षहर, थाना-सिकरारा, जनपद-जौनपुर, उ.प्र. से है; किन्तु इस पते पर याचिकाकर्ता निवास नहीं करता।  वर्तमान में वह अधिकांष समय मेरठ में एक किराये के मकान में रहता है, जिसका किराया याचिकाकर्ता के बड़े व छोटे भाई मिलकर उठाते हैं।  याचिकाकर्ता खाली समय में लेखन का काम करता है।  मार्ग व्यय का आष्वासन मिलने पर देष भर में घूम-घूम कर जनसभायें करके आर्थिक लोकतंत्र की व्यवस्था को लोकप्रिय बनाने का काम करता है।  याचिकाकर्ता का निजी खर्च वर्तमान में 1000 रूपये प्रतिमाह उसके रक्त परिवारजन उठाते हेै,  500 रूपये प्रतिमाह मेरठ में कई षिक्षण संस्थानों के संचालक डॉ. अतुल कृश्ण भटनागर उठाते हैं । कुल 1500 रूपये महीने में याचिकाकर्ता अपने निजी खर्च सीमित रखता है और इस रकम का एक हिस्सा सामाजिक कार्यों पर भी नियमित खर्च कर देता है।  याचिकाकर्ता का किसी बैंक में कोई खाता संचालित नहीं है, क्योंकि बैंक में रखने के लिए अतिरिक्त पैसा ही उसके पास नहीं होता।  याचिकाकर्ता से सहानुभूति व प्रेम रखने वाले आर्थिक आजादी परिसंघ मेरठ इकाई से जुड़े सुधा पाण्डेय, राम अवतार बंसल, अवधेष सिंह व ष्याम मोहन गुप्ता बगैर षादी व बगैर परिवार के मेरठ में अकेले रह रहे 36 वर्शीय याचिकाकर्ता को अपने घर भोजन कराना पसंद करते हैं।  अधिकांषत: याचिकाकर्ता इन्हीं लोगों के घर भोजन करता भी है।  मेरठ में खेल जगत के जाने-माने उद्योगपति व सर्वोदय से जुड़े वयोवृध्द कार्यकर्ता कृश्ण कुमार खन्ना नि:षुल्क अपने फैक्ट्री के कार्यालय में जनसम्पर्क के लिए याचिकाकर्ता को बैठने की जगह देते हैं, व नि:षुल्क फोन की सुविधा देते हैं।  दिल्ली प्रवास कs दौरान प्रमुख याचिकाकर्ता को वायु सेना के अवकाष प्राप्त सैनिक सुनील कुमार भटनागर नि:षुल्क आवास व भोजन की सुविधा मुहैया कराते हैं, व सुप्रिम कोर्ट के जाने-माने अधिवक्ता श्री आर.के.आनन्द के छोटे भाई सुनील आनन्द अपने साथ-साथ सांसदों से मुलाकात के लिये कार की सुविधा नि:षुल्क उपलब्ध कराते हैं।  इन्हीं लोगों के आर्थिक सहयोग से प्रमुख याचिकाकर्ता समाज का काम कर पाता है, व अपने संकल्प के साथ अब तक जीवित है।

 

 

 

(ख)  षैक्षिक व्यवस्था में सुधार के लिये 'नेफर'-

                (i)            यह कि सन् 1992 में जब प्रमुख याचिकाकर्ता विधि स्नातक कोर्स का पहला वर्श उत्ताीर्ण करके दूसरे वर्श में था, तो उक्त घटी घटनाओं ने आगामी विद्यालयी षिक्षा के औचित्य पर ही प्रष्न लगा दिया। क्योंकि अब याचिकाकर्ता के जीवन के लक्ष्य व प्राथमिकतायें बदल गई थीं। नई प्राथमिकताओं की दिषा में बढ़ने में विद्यालयी षिक्षा उपयोगी साबित होने की बजाय समय की बर्बादी के रूप में दिखाई दे रही थी।  इसलिये याचिकाकर्ता ने सबसे पहले षिक्षा में सुधार के उद्येष्य से 'नेषनल फाउंडेषन ऑफ एजुकेषन एण्ड रिसर्च' संक्षेप में 'नेफर' के नाम से एक संगठन बनाया, व उसे पंजीकृत करवाया।  इलाहाबाद षहर के षिक्षा, विधि व राजनीति से जुड़े षीर्शस्थ लोग संगठन में षामिल हुए।

                (ii)           यह कि नेफर ने षिक्षा के निजीकरण या राश्ट्रीयकरण की बजाय 'जनापेक्षीकरण' के नाम से षिक्षा के निजीकरण व षासकीकरण के बीच का नया मार्ग निकाला।  'षैक्षिक व्यवस्था का नेफर मॉडल' के नाम से इलाहाबाद की मीडिया में लोकप्रिय इस व्यवस्था के प्रस्ताव ने षिक्षा व्यवस्था में अकादमिक संरचना के साथ-साथ व षैक्षिक मूल्यों  वित्ता संचार प्रणाली का विकल्प भी पेष किया।  षैक्षिक सुधार के इस प्रस्ताव में अकादमिक डिग्री व प्रतियोगिता परीक्षाओं के पाठयक्रमों के बीच अन्तर को पाटना इसलिये आवष्यक बताया गया, क्योंकि इन दोनों चक्कों के बीच पिस कर विद्यार्थी का कई वर्शों का बहुमूल्य समय नश्ट होता है।  विष्व विद्यालय स्तर की षिक्षा में राजनीतिषास्त्र विभाग की बजाय स्थानीय राजनीति विभाग, प्रादेषिक राजनीति विभाग, देषीय राजनीति विभाग, वैष्विक राजनीति विभाग जैसे विभागों की जरूरत बताई गई ।  इसके पीछे मूल मान्यता यह है कि काम करते-करते सिध्दांतों को समझने की भूख जगनी चाहिए; न कि पहले विद्यार्थी को उबाऊ सिध्दांत ही जबरदस्ती उसके दिमाग में धकेला जाये। षिक्षा के जनापेक्षीकरण के नाम से प्रतिपादित षिक्षा के नेफर मॉडल में स्थानीय मूल्यों में समन्वय करते हुए नये सामाजिक व वैष्विक मूल्यों के प्रचार-प्रसार को आवष्यक बताया गया।  इसका मूल कारण यह है कि बाजार के वैष्वीकरण के बाद व्यक्ति की रोटी का दायरा विष्वव्यापी हो गया है, लेकिन अगर वह विष्व से प्रेम करने के मूल्यों को अपनाता है तो स्थानीय संस्कृति की जड़ें उखड़ने का खतरा पैदा होता है । और राश्ट्रवाद की पुरानी परिभाशा को अपनाकर जीना चाहे तो यह परिभाषा इस तरह के वैष्विक प्रेम के सामने बाधक बनकर खड़ी हो जाती है।  नेफर मॉडल ने इसका समाधान यह बताया कि नई परिस्थितियों में राज्य की सत्ताा संरचना भी बदलना चाहिए; जिससे विष्व स्तरीय राज्य वैष्विक मूल्यों के पोशणकर्ता के रूप में काम करे और स्थानीय राज्य स्थानीय मूल्यों का पोशण करे।  नेफर ने राज्य के इन दोनों ध्रुवों के बीच राज्य के मध्यवर्ती सोपानों की उपस्थिति भी आवष्यक बताया।  नेफर मॉडल ने यह भी बताया कि आर्थिक विशमता के मूल्य समय के साथ-साथ एक अंधविष्वास व एक तरह की जैविक नषाखोरी साबित हो रहे हैं; क्योंकि अब लगभग मानव रहित उत्पादन प्रणाली अस्तित्व में आ चुकी है।  अब आर्थिक विशमता के मूल्यों का पठन-पाठन एक ऐसा अंधविष्वास बन गये हैं, जिससे गरीबी की रक्षा हो रही है, जबकि यह विशमता अब विकास में सहयोग नहीं कर पा रही है।  नेफर मॉडल ने समता के मूल्यों को पाठयक्रम का हिस्सा बनाना अब आवष्यक बताया, क्योंकि मषीनों द्वारा प्रचुर उत्पादन के आज के युग में, जब से आदमी को पारम्परिक काम करने के अवसर ही समाप्त हो गये हैं ।  तो नेफर ने निश्कर्श निकाला कि मषीनी उत्पादन के वर्तमान युग में आम लोगों को आर्थिक विशमता के मूल्य पढ़ाकर और भूखा रखकर उन्हें काम करने वालें दासों की रिजर्व फोर्स बनाकर रखने का औचित्य ही खत्म हो गया है।

                (iii)          यह कि षिक्षा के क्षेत्र में नेफर के इस आविश्कार को टाइम्स आफ इण्डिया, पॉयोनियर, लीडर, अमृत प्रभात, न्युजलीड, दैनिक जागरण, अमर उजाला, राश्ट्रीय सहारा, आज, स्वतंत्र भारत जैसे बड़े अखबारों ने सन् 1994, 95, 96 के लगभग ढ़ाई वर्शों की अवधि में कम से कम अपने 35 अंकों में चार-चार, पांच-पांच कालम में प्रमुख समाचार के रूप में प्रकाषित किया।  आकाषवाणी इलाहाबाद ने अपने 'परिक्रमा' नामक साप्ताहिक कार्यक्रम के कई अंकों में नेफर की गतिविधियों को प्रमुखता के साथ प्रसारित किया।  यदि षासन के षिक्षा विभाग व संसद का सहयोग उन दिनों मिला रहता, तो आज 10 वर्शों बाद के विष्व पटल पर देष की तस्वीर ही दूसरी हो सकती थी । इस अनुभव से याचिकाकर्ता ने महसूस किया कि मीडिया का अब कोई परिणामोत्पादक प्रभाव न तो षासन पर पड़ता है, न तो समाज पर।  यह भी महसूस किया कि षासन के विभाग अपनार् कत्ताव्य समझ कर कुछ नहीं करते; वे षासन से मिलने वाले वेतन के अलावा पैसे का अतिरिक्त लाभ देखकर ही कुछ करने को प्रवृत्ता होते हैं।  इसी अनुभव के नाते याचिकाकर्ता 1995 के बाद अपनी गतिविधियों की सूचना मीडिया को देने के प्रति उदासीन हो गया।

              (iv)   यह कि षैक्षिक प्रबंधन के विशय पर नेफर ने अपना फैसला यह सुनाया कि अध्यापन के कार्य में सरकारी व निजी दोनों क्षेत्रों में स्कूलों की मौजूदगी आवष्यक है, जो है भी।  लेकिन षिक्षा परिशदें भी निजी क्षेत्र में होना चाहिए।  क्योंकि अध्यापन कार्य में तो दोनों क्षेत्रों के बीच आपसी प्रतिस्पर्धा हो पाती है, पाठयक्रम व परीक्षा प्रणाली के क्षेत्र में नहीं हो पाती। स्कूलों को यह छूट मिलनी ही चाहिए कि वे षासकीय बोर्ड से अफिलिएषन लें, या निजी बोर्ड सेजो बोर्ड अच्छी गुणवत्ताा देगा, उसे अपनाने की आजादी स्कूलों को नहीं हैं।  इससे तमाम समस्यायें पैदा होती हैं।  देष भर में षिक्षा की एक समान व्यवस्था कायम करना संभव नहीं हो सकता, क्योंकि देष में आर्थिक विशमता के मूल्य अपनाये गये हैं।  नेफर का इस विशय में निश्कर्श यह था कि जब तक आर्थिक विशमता रहेगी, तब तक एक समान षिक्षा व्यवस्था कायम नहीं की जा सकती, यदि ऐसा करने का प्रयास किया जायेगा तो परिणाम तो आ नहीं सकता, इसके विपरीत भ्रश्टाचार का एक षासकीय अड्डा और खुल जायेगा।

              (v)    यह कि 'नेफर' के माध्यम से षैक्षिक सुधार के लिए काम करते-करते षिक्षा के गुणात्मक उत्थान व परिमाणात्मक विस्तार का मामला याचिकाकर्ता के सामने आया।  कार्य के एक चरण में पहुंचकर यह प्राथमिकता तय करना आवष्यक हो गया, कि याचिकाकर्ता षिक्षा के गुणात्मक उत्थान के लिए काम करे या अधिक से अधिक लोगों को षिक्षित बनाने के लिए यानि परिमाणत्मक विस्तार के लिए काम करे याचिकाकर्ता जब षिक्षा विभाग के अधिकारियों के साथ कुछ षिक्षण संस्थानों से परिचित हुआ, तो स्पश्ट दिखाई दिया कि षिक्षा के क्षेत्र में ऊंचे-से-ऊंचे प्रयोग चल रहे हैं व अनेक विद्यालयों में अपने-अपने तरीके से ये प्रयोग  प्रदर्षित भी किये जा रहे हैं।  याचिकाकर्ता ने यह भी देखा कि षिक्षा के ये संस्थान केवल अल्पसंख्यक अमीर परिवारों की सेवा में लगे हैं।  समाज का बहुसंख्यक हिस्सा यहां तक पहुंच ही नहीं सकता।  इस अनुभव के बाद याचिकाकर्ता ने तय किया कि वह समाज के लगभग बचे हुये पूरे हिस्से को षिक्षित बनाने के लिये काम करेगा। 

            (vi) जब षिक्षा के परिमाणात्मक विस्तार का रास्ता याचिकाकर्ता ने अख्तियार कर लिया तब देखा कि अधिकांष गरीब परिवार पैसे की तंगी के कारण बच्चों को पढ़ने का अवसर नहीं दे पाते।  परिवारों की नियमित आमदनी का जरिया सुनिष्चित किये बगैर सबको स्कूलों से गुजार पाना असंभव दिखा ।  इस परिस्थिति ने याचिकाकर्ता को बाध्य किया कि वह परिवारों की आमदनी के नियमित स्रोत खोजने का काम करे।  यहां से याचिकाकर्ता षिक्षा व्यवस्था की बजाय अर्थव्यवस्था व उसे संचालित करने वाली राजव्यवस्था की ओर नजर डालने के लिए उन्मुख हुआ। यह कसमकष भी वोटरषिप की खोज का कारण बना।  याचिकाकर्ता इस नतीजे पर पहुंचा है कि जनता को षिक्षा के प्रति जागरूक करने से षिक्षा का प्रवेष परिवारों में नहीं होगा । अधिकांष लोगों में लोकप्रिय यह मान्यता वास्तव में एक मिथक है।  वास्तविकता यह है कि वोटरषिप के माध्यम से हर एक परिवार की नियमित आमदनी का जरिया सुनिष्चित करने व सकल घरेलू फुरसत के क्षणों में से हर परिवार को उसका हिस्सा वापस कर देने से सर्व षिक्षा का परिणाम स्वत: दिखाई पड़ने लग जायेगा।  याचिकाकर्ता इस नतीजे पर पहुंचा है कि परिवार में षिक्षा पहले नहीं आती, पहले पैसा आता है।  जिस परिवार में पैसा आ जाता है, उसके बच्चों में षिक्षा स्वत: प्रवेष कर जाती है।  जिन परिवारों में षिक्षा पहुंचानी हो, वहां पाठयपुस्तक व षिक्षक भेजना निरर्थक है; वहां पैसा भेजना श्रेयस्कर है।  परिवार में षिक्षा आने से पैसा आयेगा, या पैसा आने से षिक्षा आयेगी।  यह बहस याचिकाकर्ता को मुर्गी व अण्डे की बहस जैसी लगी।  याचिकाकर्ता ने 'पहले पैसा' के पक्ष में अपना फैसला सुना दिया है, उसी दिषा में काम कर रहा है

            (vii)       यह कि नेफर की गतिविधियों की मीडिया रपटों से परिचित होने के लिए इस याचिका के अध्याय-11.7 का संदर्भ ग्रहण करे।

(ग)  'वोटरषिप' - जीवन के अनुभवाें का निश्कर्श

       यह कि इस अध्याय के पैरा -1.क (iv) से स्पश्ट है कि प्रमुख याचिकाकर्ता (आगे-याचिकाकर्ता) इस इच्छा से संचालित है कि किसी अन्य के अधिकारों का अतिक्रमण किये बिना अपने अधिकारों का उपयोग करते हुए सम्मानपूर्वक अपना जीवन जी सके, इसलिए-उसे जीवन में कुछ ऐसे कठिन मार्गों से गुजरना पड़ा, जो प्रसव पीड़ा की तरह कश्टप्रद किन्तु परीणामदायक रहे। उसमें से कुछ की झलक इस प्रकार है-

              (i)    याचिकाकर्ता ने 1992 में उ.प्र. की प्रादेषिक सिविल सेवा की प्रारंभिक परीक्षा प्रथम प्रयास में उत्ताीर्ण किया।  इसके बावजूद प्रादेषिक या भारतीय सिविल सेवा में जाने का विचार याचिकाकर्ता को छोड़ना पड़ा; क्योंकि बेरोजगारी के वर्तमान युग में किसी एक भाई-बहन के बेरोजगार रह जाने का उसे खतरा दिखा।  कारण यह था कि याचिकाकर्ता सिविल सेवा का कोई पद स्वीकार कर लेता तो लगभग उतना ही योग्य एक अन्य भाई या बहन उस पद को प्राप्त करने से वंचित रह जाता/जाती।  यह दूसरे के अधिकारों का प्रमुख याचिकाकर्ता द्वारा अतिक्रमण होता। ऐसा संभव था कि इस प्रकार पद से वंचित कोई व्यक्ति जीवन भर बेरोजगार रह जाता। ऐसा भी संभव था कि अपनी वृत्तिा के अनुसार या तो वह किसी आपराधिक कृत्य में संलग्न होकर अपनी रोटी का प्रबंध करता; या फिर भविश्य के असम्मानजनक जीवन का भय देखकर आत्महत्या कर लेता।

              (ii)    प्रमुख याचिकाकर्ता ने सोंचा कि षायद बड़े पदों के लिए ही समाज में ज्यादा होड़ होगी, इसलिए छोटे पदों पर काम करके जीवन निर्वाह करना चाहिए।  इस विचार से प्रमुख याचिकाकर्ता ने स्कूलों के चपरासी, फैक्ट्रियों के वर्कर तथा अखबारों के दफ्तरों में कोई काम तलाषने का अभियान चलाया; तमाम जगहों पर जाकर देखा तो इन कम वेतन वाली जगहों पर भी तमाम लोग इन पदों के काम ऐसे मांगते दिखे जैसे काम नहीं, सड़क पर भीख मांग रहे हों, उनके होठों पर सूखती हुई पपड़ी की पर्तें जब याचिकाकर्ता ने देखा तो उसे कम वेतन के सरकारी या गैर सरकारी पदों पर काम करने का विचार भी त्यागना पड़ा।  याचिकाकर्ता को साफ दिखाई दिया कि अगर वह कम वेतन के किसी पद को स्वीकार करता है तो वह अपने जीवन निर्वाह के प्रयास में किसी एक न एक अन्य नागरिक को जीवन जीने से वंचित अवष्य कर देगा।

              (iii)   इस बीच कुछ लोगों से वार्तालापोें एवं अखबारों के कुछ विष्लेशणों से याचिकाकर्ता इस मान्यता से परिचित हुआ कि - लोग 'व्हाइट कॉलर जॉब' चाहते हैं, इसलिए काम नहीं मिलता अन्यथा दुनिया में काम की कोई कमी नहीं है।  इस अवधारणा ने याचिकाकर्ता को  प्रेरित किया कि उसे पदों का लालच छोड़कर असंगठित क्षेत्र की मजदूर बाजारों में जाकर अपना श्रम बेंचना चाहिए।  षायद सड़क बनाने के काम में, ईंट-गारा ढ़ोने के काम में- काम पाने की होड़ नहीं होगीवहां काम करने वालों की मांग होगी। इसलिए याचिकाकर्ता लगातार सन् 1997 के चार महीने अप्रैल-मई-जून-जुलाई तक बारी-बारी से उ.प्र. के मेरठ षहर की एल. ब्लॉक षास्त्री नगर मजदूर बाजार, षगाषा मजदूर बाजार, जेल चुंगी मजदूर बाजार, बेगमपुल मजदूर बाजार और बागपथ अड्डा मजदूर बाजारों में रोज सुबह मजदूरों के बीच दिन भर के लिए बिकने के लिए खड़ा होता रहा। याचिकाकर्ता को इस दौरान भी मजदूरी नहीं मिली, किन्तु मजदूरों से परिचय बढ़ने लगा। मज़दूरी नहीं मिलने पर याचिकाकर्ता के सामने सवाल उठ गया । उसने गंदे कपड़े पहनने व दाढ़ी बढ़ाने के प्रयोग भी करके देखे कि सारे मजदूरों को तो काम मिल जाता है, वे 10-11 बजे सुबह तक कहीं न कहीं चले जाते हैं, फिर याचिकाकर्ता को मजदूरी पर कोई क्यों नहीं ले जाताइस सवाल के जवाब में साथी मजदूरों ने बताया कि आप यह समझते हैं कि सबको काम मिल जाता है इसलिए 11 बजे तक सभी काम पर चले जाते हैं; जबकि आपको अनुभव की कमी है।  उन्होंने बताया कि 11 बजे के बाद काम पर बुलाने वाला कोई आता ही नहीं। इसलिए मजदूर बाजार में आये हुए ज्यादातर मजदूर 11 बजे अपने-अपने घर चले जाते हैं, काम पर नहीं जाते।  साथी मजदूरों का यह कथन उस दृष्य से मेल खा गया, जिसमें मैं रोज देखता था कि एक आदमी स्कूटर से आकर मजदूरों के बीच में रूकता था, और स्कूटर की गद्दी पर बैठा ही रहता था; तब तक मजदूर उसे भिखमंगों की षैली में चारों तरफ से घेर लेते थे । वह सौदा करता था- काम ये....है।  कितने रूपये (दिन भर के)े लोगे याचिकाकर्ता अक्सर उस भीड़ को चीरकर अन्दर नहीं जा पाता था, बस भीड़ के पीछे से श्रमिक के खरीदार और दिन भर के लिए खुद को बेचने के लिए खड़ी भीड़ में वार्तालाप सुनता था।  जो मजदूर प्रचलित मजदूरी से कम में काम करने की हामी भर देता था और अपेक्षाकृत चुस्त दुरूस्त दिखाई देता था, स्कूटर वाले उसे भीड़ के बाहर लाते थे और पता बताकर पते पर पहुंचने का निर्देष दे देते थे। जब 11 बजे भीड़ को छंट जाने का यह कारण मजदूरों ने बताया तब याचिकाकर्ता का ध्यान इस तरफ गया और फिर देखा कि वास्तव में आमतौर पर जिसे मजदूर की जरूरत होती थी, वे सब सुबह सात से 10 बजे के बीच ही आते थे।  10 बजे के बाद सौदेबाजी वाली भीड़ भी नहीं दिखती थी। इस अनुभव के बाद याचिकाकर्ता को काम पाने की अंतिम आषा भी टूट गई।  याचिकाकर्ता ने अनुभव किया कि कलेक्टर बनने के लिए लोगों में जो होड़ थी, वही होड़ ईंट-गारे की ढ़ुलाई से दिन भर में 60 रूपये पाने के लिए भी थी।  याचिकाकर्ता यह नतीजा निकाल सका कि निजी कम्पनियों में या असंगठित मजदूर बाजारों में याचिकाकर्ता के षामिल होने के दो अनिवार्य परिणाम होंगे।  पहला, यह कि एक श्रमिक दिन भर के काम और उससे मिलने वाले 60 रूपये की मजदूरी से वंचित हो जायेगा। दूसरा यह कि मजदूरी का रेट 60 से गिराकर 50 रूपये हो जायेगा। इस नतीजे ने एक बार फिर याचिकाकर्ता को बताया कि अगर वह मजदूरी करता है तो उसे अपने संकल्प के साथ जीने की षर्त को तोड़ना होगा। उल्लेखनीय है कि उसने यह संकल्प लिया था कि वह दूसरे के अधिकारों का अतिक्रमण किये बगैर अपने अधिकारों का उपभोग करेगा और सम्मानपूर्वक जियेगा।

              (iv)   सन् 1992 से सन् 1998 पूरे 6 वर्श तक याचिकाकर्ता यही तलाषता रहा कि वह अपने संकल्प के साथ कैसे जीवित रह सके !  इस बीच आत्ममंथन करने पर याचिकाकर्ता को लगा कि वह काम तो करने की स्थिति में है, और कर भी रहा है किन्तु काम का आर्थिक मूल्यांकन नहीं हो रहा है।  इसलिए जहां वह इलाहाबाद में रहते हुए परिवार से लेकर हर महीने 4000 रूपये खर्च करता था, अब उसे 1000 रूपये में महीना काटने को मजबूर होना पड़ा।  परिवार, जिसमें याचिकाकर्ता का जन्म हुआ, उससे अब पैसा मांगने का अधिकार भी खो दिया, क्योंकि परिवार को पैसा वापस दे पाने की स्थिति में वह स्वयं को नहीं पा रहा था।  ऐसी दुर्दषा देखकर मेरठ के एक उद्योगपति ने अप्रैल 1999 से याचिकाकर्ता को 500 रूपया हर माह सहयोग देना षुरू किया।  उन्होंने जून 2004 में आकर वोटरशिप के विरोध स्वरुप यह सषर्त राषि देना बंद कर दिया । इस प्रकार याचिकाकर्ता गंभीर आर्थिक तंगी से पुन: गुजरने लगा ।

              (v)    1994 के बाद से सन् 2000 के मध्य याचिकाकर्ता ने स्वयं कई फर्मो/कंपनियाें को बंद होते हुए देखा और सुना।  यहां तक कि ऐसे ही एक प्रकरण में याचिकाकर्ता को एक मिल में मिलकर्मियों के साथ प्रषासनिक ज्यादती का विरोध करना पड़ा।  इस विरोध को प्रषासन ने बुरा माना एवं झूठी धाराएं लगाकर याचिकाकर्ता को 29 अन्य मजदूरों के साथ जेल भेज दिया।  याचिकाकर्ता को प्रषासन के अत्याचार के खिलाफ मजदूरों की रक्षा हेतु लगभग तीन महीने (83 दिन) मेरठ जेल में रहना पड़ा।  जेल से निकलने पर याचिकाकर्ता ने मानहानि एवं क्षतिपूर्ति का मुकदमा हाईकोर्ट इलाहाबाद में दायर किया, जो अभी भी विचाराधीन है। 

       इन घटनाओं ने प्रार्थी को सिखाया कि छोटे निवेष के उद्योग विष्व व्यापार संगठन की आंधी में टिक नहीं सकते।  बड़ा निवेष करके याचिकाकर्ता कोई व्यवसाय कर नहीं सकता था, क्योंकि रक्तपिता के पास इतनी संपत्तिा नहीं थी, जिसे निवेष के रूप में उपयोग करता या फिर उस संपत्तिा की गारंटी पर बैंक से लोन लेता।  इस दषा ने यह सुनिष्चित कर दिया कि छोटे-मझोले दर्जे का उद्योग लगाकर याचिकाकर्ता अपनी आमदनी का जरिया नहीं बना सकता।

              (vi) यह कि याचिकाकर्ता 1992 में 23 वर्श की उम्र का था।  इसी वर्श उसने दूसरे के अधिकारों के अतिक्रमण के बिना अपने अधिकारों के प्रयोग का संकल्प लिया।  इसी वर्श उसे प्रादेषिक सिविल सेवा की प्रारंभिक परीक्षा में सफल घोशित करके आगामी प्रक्रिया के लिए लोक सेवा आयोग, इलाहाबाद द्वारा बुलावा पत्र भेजा गया।  ठीक इसी समय उसे अपने संकल्प की रक्षा में अपने विवाह की प्रक्रिया पर रोक लगानी पड़ी।  जबकि विवाह की तमाम महत्वपूण्र्[1]ा रस्में पूरी हो चुकी थीं।  याचिकाकर्ता जान गया था कि सिविल सेवा उसकी आमदनी का जरिया नहीं बन सकती।  आमदनी का नया स्रोत अभी स्पश्ट नहीं हुआ था।  रक्त पिता की पैत्रिक संपत्तिा इतनी थी नहीं कि एक दंपत्तिा का खर्च उससे उठाया जा सकता।  इसलिए याचिकाकर्ता को आमदनी का नया जरिया पैदा होने तक षादी की प्रक्रिया स्थगित करनी पड़ी।  1992 से 97 तक 5 वर्शों में याचिकाकर्ता ने यह अनुभव किया कि अपने संकल्प की रक्षा करते हुए किसी सरकारी या गैरसरकारी संगठन-संस्थान-फैक्ट्री से वह कम वेतन की आमदनी का स्रोत पैदा नहीं कर सकता।  इस समय तक याचिकाकर्ता की आयु 28 वर्श हो गई।  इस अवधि में याचिकाकर्ता ने महसूस किया कि षादी-विवाह के अधिकांष मामलों में पात्र की आर्थिक योग्यता उसकी मानसिक-षारीरिक योग्यता पर भारी पड़ती है।  भारतीय समाज में कोई भी पिता जब कोई वर तलाषने के लिए निकलता है तो उसके मन में जातीय आरक्षण और आर्थिक आरक्षण का पैमाना होता है।  वह अपनी जाति के कम योग्य वर को चुनना पसंद करता है, दूसरी जाति के ज्यादा योग्य वर को खारिज कर देता है।  वह अपनी ही जाति के ज्यादा सम्पन्न वर को पसंद करता है, अपनी ही जाति के ज्यादा समझदार किन्तु विपन्न वर को खारिज कर देता है।  वर की तलाष में वधू के पिता की नजर वर की संपत्तिा और आमदनी पर ललचाती रहती है, इसी लालच को देखकर वर पक्ष अपने को लगभग नीलाम करने जैसा बर्ताव वधू पक्ष के साथ करता है।  वर पक्ष की  संपत्तिा व आमदनी वधू को दिलाने के एवज में वधू पक्ष नीलामी जैसी जो रकम देता है, उसे दहेज नाम की बुराई के रूप में प्रचार मिला है।  याचिकाकर्ता ने मेरठ में एक ऐसी ही षादी की परिघटना को घटते हुए देखा।  जिसमें एक पिता दूसरी जाति के ज्यादा योग्य वर (डॉक्टर) को दामाद नहीं बनाया और अपनी जाति के तमाम विपन्न वरों को खारिज करते हुए अपेक्षाकृत एक संपन्न प्राइमरी अध्यापक को दामाद बनाया।

       समाज में आर्थिक आरक्षण की यह तस्वीर देखकर याचिकाकर्ता यह नतीजा निकाल सका कि चाहे वह कितना भी विद्वान एवं कितना भी परमार्थी क्यों न हो, जब तक वह आमदनी का जरिया नहीं बनाता, उसे विवाह से वंचित रहना होगा।  उसने यह भी महसूस किया कि अगर कोई बहू स्वयं आमदनी का जरिया रखती है तो भी वह ऐसे वर को पसंद नहीं करती, जिसके पास आमदनी का जरिया नहीं होता।  याचिकाकर्ता ने यह भी देखा कि एक अमीर घर की बहू प्रतिभाषाली वर को इस आधार पर खारिज कर देती है कि वह अमीर बाप का बेटा नहीं है, या वह लाखों रूपया महीने की आमदनी नहीं रखता।

       याचिकाकर्ता के सामने असाध्य विरोधाभास लम्बे समय से मौजूद हैं।  अगर वह आमदनी का जरिया पैदा करने के लिए कहीं नौकरी करे तो उसके जीवन का संकल्प टूटता दिखा।  अगर वह आमदनी युक्त वधू व सम्पन्न घर की किसी लड़की के समक्ष विवाह का प्रस्ताव रखे, तो उसे प्रस्ताव खारिज होता हुआ दिखा।  याचिकाकर्ता ने देखा कि पैसे को योग्यता नापने का सर्वश्रेश्ठ पैमाना संसद और समाज दोनों ने स्वीकार कर रखा है।  जबकि न तो संविधान और न ही समाज यह देखता है कि किसी के पास जो पैसा है, वह उसकी प्रतिभा-मेहनत की देन है, या फिर भ्रश्टाचार -विरास孨 की। याचिकाकर्ता अब इस नतीजे पर पहुंचा है कि -

       पहला -  यदि वर-वधू में से किसी एक की ही आमदनी को वैध मानने का कानून नहीं बनता और असीमित उत्ताराधिकार की सीलिंग का कानून बनाकर गरीब-मां-बाप के घर में पैदा हुए बच्चों को कुछ न कुछ उत्ताराधिकार की आमदनी का मालिक नहीं बनाया जाता तो रोजगार के सिमटते अवसरों तथा बढ़ती (या स्थिर) जनसंख्या को देखते हुए याचिकाकर्ता को ही नहीं, ऐसे तमाम लोगों को मजबूरन अविवाहित रहना पड़ेगा।

       दूसरा - यदि याचिकाकर्ता को राश्ट्रीय आर्थिक उत्ताराधिकार की संम्पत्तिा में अपने हिस्से का किराया (यानी वोटरषिप) मिल जाता है तो याचिकाकर्ता इस संपत्तिा या संपत्तिा के किराये को संकल्प तोड़े बगैर अपनी आमदनी का जरिया बना सकता है, और इस आमदनी को आधार बनाकर अपने विवाह का विज्ञापन भी दे सकता है। 

              (vii)   याचिकाकर्ता की इच्छा है कि वह जिसके लिए काम करे, उससे प्रत्यक्ष भुगतान न ले, क्योंकि ऐसा करके ही वह अपने संकल्प की रक्षा कर सकता है।  कार्य के बदले जो आनंद की प्राप्ति होती है, याचिकाकर्ता उसी आनंद को अपना प्रत्यक्ष भुगतान मानना चाहता है।  आजीविका का खर्च वह राश्ट्रीय विरासत की संपत्तिा में अपने हिस्से के किराये पर डालने का इच्छुक है।  याचिकाकर्ता पिछली पीढ़ियों के कार्यों से पैदा हुए वित्ताीय स्रोत को अपनी आजीविका का आधार बनाना चाहता है और चाहता है कि उसके कार्यों से पैदा हुआ वित्ता आने वाली पीढ़ियों की आजीविका के लिए वित्ताीय स्रोत बने।  किसी भी संस्थान में, या स्वतंत्र रूप से बिना प्रत्यक्ष वेतन लिए यदि याचिकाकर्ता काम करता है तो नियोक्ता पर याचिकाकर्ता की वजह से कोई आर्थिक दबाव नहीं पड़ेगा।  इसलिए न तो वह याचिकाकर्ता के कारण अपने संस्थान से किसी को बाहर निकालेगा और न ही पैसे के लिए काम करने वालों के लिए रिक्तियों का विज्ञापन देने से अपने कदम वापस ही खींचेगा।  ऐसा हुआ तो याचिकाकर्ता को काम करने के लिए जरूरी पैसा भी मिल जाएगा एवं याचिकाकर्ता किसी दूसरे भाई-बहन को उसकी आजीविका से वंचित भी नहीं करेगा। इस प्रकार उसे आय का एक अहिंसक जरिया और काम - दोनों मिल जाएगा।

              (viii)   याचिकाकर्ता के सम्पर्क में 1994 में कुछ ऐसे लोग आये, जिन्होंने विष्व व्यापार संगठन (पूर्व नाम गैट) के दुश्प्रभावों से परिचित कराते हुए कहा कि भारत सरकार यदि इस (डंकेल प्रस्ताव) दस्तावेज पर हस्ताक्षर कर देती है तो भारत के उद्योगों की प्रतिस्पर्धा विष्व के अन्य देषों के साथ हो जाएगी।  भारत के उद्योग इस प्रतिस्पर्धा में टिके रहने के लिए अंधाधुन्ध मषीनीकरण का सहारा लेंगे।  इसका परिणाम होगा छोटे-एवं मझोले उद्योगों का निवेष की कमजोरी के कारण ठप्प होना और रोजगार प्राप्त लोगों की अंधाधुंध छंटनी।

       अपनी षैक्षिक (अकादमिक) जीवन का दरवाजा बंद करके याचिकाकर्ता षिक्षा व्यवस्था की समस्याओं एवं उनके समाधानों के अभियान पर लगा था।  इसलिए विष्व व्यापार संगठन के खिलाफ किसी अभियान में लग पाने की परिस्थिति में नहीं था।  इसी कारण उसने अपनी असमर्थता उन लोगों से जाहिर किया जो स्वदेषी साधनों के सहारे आंदोलन में याचिकाकर्ता से सहयोग मांग रहे थे।

              (ix)   याचिकाकर्ता उक्त अनुभवों से गुजरने के बाद अपने संकल्प के साथ जीने का कोई उपाय नही पाने लगा तो अवसाद ग्रस्त हो गया।  इस मानसिक अवस्था में याचिकाकर्ता ने सोंचा कि अगर किसी दूसरे के जीवन की कीमत पर ही जीना संभव है तो अपने जीवन की इहलीला समाप्त क्यों नहीं कर लेना चाहिए इस मानसिक अवस्था में याचिकाकर्ता लगातार सन 1996, 97 के पूरे दो वर्श और 1998 का कुछ हिस्सा गुजारा।

              (x)    इस मानसिक अवस्था में याचिकाकर्ता का ध्यान आत्महत्या की घटनाओं पर गया।  याचिकाकर्ता को जानकारी हुई कि अगर कोई व्यक्ति आत्महत्या में सफल नहीं होता हो उसे जेल की सजा काटनी पड़ती है।  याचिकाकर्ता ने प्रत्यक्ष महसूस किया कि देष की राजव्यवस्था व अर्थव्यवस्था आदमी को जीने नहीें दे रही है और अगर मरने का प्रयास करिये तो सामने कानून आकर रोक रहा है।

(ड.)  14 दिनों का प्राणघातक अनषन -

            (i)    इसी मानसिक अवस्था में उ.प्र. में मेरठ जिले के मवाना तहषील के अंतर्गत खेड़ी मनिहार गांव में एक दुर्घटना घटी, जिसमें आर्थिक तंगी से तंग आकर एक ही परिवार के 5 लोगों ने जहर खाकर आत्महत्या का प्रयास किया, जिसमें 4 की मौत हो गई, 8 वर्श की एक छोटी षिषु को चिकित्सकों ने अस्पताल में बचा लिया।  यह घटना अखबारों में मुख्य पृश्ठ पर छपी और याचिकाकर्ता को उद्वेलित कर गई।  याचिकाकर्ता ने पहली जुलाई 1998 को जब यह घटना अखबार में पढ़ा तो सुबह नाष्ता करने की उसकी इच्छा मर गई।  दोपहर भोजन भी नहीं किया।  षाम का भोजन भी मना कर दिया।  अगले दिन पूरे दिन भर नहीं खाया।  तीसरा दिन भी बिना खाये निकल गया।  चौथे दिन भूख की पीड़ा काफी बढ़ गई थी, किन्तु याचिकाकर्ता को ऐसी घटनाएं रोकने का कोई उपाय सूझ नहीं रहा था, जबकि विष्व की राजव्यवस्था व अर्थव्यवस्था की दिषा को देखते हुए इन घटनाओं को याचिकाकर्ता इन दर्ुव्यवस्थाओं का अनिवार्य परिणाम ही मान रहा था।  याचिकाकर्ता जीवित बच गई 8 वर्श की छोटी बच्ची के सांसारिक रिष्तों पर विचार करके यह नतीजा निकालना चाहता था, कि अब इस बच्ची की इज्जत बचाने वाला व इसकी देखरेख करने वाला संसार में कौन हैक्या रक्तपिता वह तो मर चुका है।  क्या मां वह भी मर चुकी है।  क्या भाई वह भी मर चुका है।  क्या बहन वह भी मर चुकी है।  क्या पड़ोसी अगर वे ऐसे होते तो यह परिवार जहर ही क्यों खाता क्या सरकारसरकार बच्ची से षर्त रखेगी-'काम के बदले अनाज' ! क्या परमपिता, ईष्वर? उसी ने तो बच्ची को बुरे कर्म का फल दिया है (?)

              (ii)    इस उहापोह में पांचवा दिन भी बिना कुछ खाये बीत गया।  पांचवें दिन याचिकाकर्ता का छोटा भाई जो उन दिनों मेरठ में एम.बी.बी.एस. का कोर्स कर रहा था, बहुत घबरा गया ।  वह याचिकाकर्ता के किसी ऐसे परिचित के पास गया, जिसके बारे में उसे आषा थी कि वह भोजन करने के लिए याचिकाकर्ता को राजी कर सकते थे।  उसे आषंका थी कि उसकी किसी गलती के कारण नाराज होकर याचिकाकर्ता भोजन नहीं कर रहा था। याचिकाकर्ता के उम्रदराज मित्र को जब याचिकाकर्ता की मानसिक अवस्था के बारे में का पता चला, तो उन्होंने बिना याचिकाकर्ता से पूछे ही मेरठ के जिलाधीष को यह पत्र दे दिया कि याचिकाकर्ता गत 5 दिनों से आमरण अनषन पर है, उनकी मांग है कि जो परिवार मवाना मेरठ में आत्महत्या किया, उस परिवार में जीवित बच गई छोटी बच्ची को इज्जत के साथ जीने के लिए आर्थिक सुरक्षा के तौर पर कुछ नियमित रकम दिया जाये। जिलाधीष ने उन्हें फटकारते हुए कहा कि ''ऐसे भरत गांधी रोज मरते हैं; अनषन से पहले नोटिस दिया जाता है''। उन्होंने जिलाधीष को आवेदन करके याचिकाकर्ता से चुपचाप बंद कमरे में अनषन करने की बजाय जिला अधिकारी के कार्यालय के समक्ष अनषन करने को कहा।  उनका तर्क था कि आत्महत्या कर चुके परिवार में जीवित बच गई बच्ची याचिकाकर्ता के अनषन के कारण इज्जत के साथ जीवन जी सकेगी, क्योंकि अनषन के कारण षासन उसकी कुछ आर्थिक मदद कर सकता है।याचिकाकर्ता यह प्रस्ताव अस्वीकार इसलिए नहीं कर सका, क्योंकि वह बच्ची का षुभचिंतक बन चुका था, और पूरे दिल से स्वीकार इसलिए नहीं कर सकता था कि मौत के दलदल में फंसे हुए तमाम परिवारों पर इस अनषन का कोई अच्छा प्रभाव पड़ने की संभावना नहीं थी।

              (iii)   पांच दिन के बाद छठें दिन याचिकाकर्ता की निजी उलझन एक सार्वजनिक कदम में रूपांतरित हो गई।  याचिकाकर्ता के कुछ परिचित उसे जिलाधिकारी कार्यालय के सामने धरने पर बैठा दिये।  वहां सातवां दिन बीता, आठवां बीता, नौवां बीता, जिला प्रषासन 10वें दिन तब हरकत में आया, जब जिला अस्पताल के चिकित्सकों की टीम ने यह लिख कर दे दिया कि रक्त, पेषाब षारीरिक परीक्षणों के मुताबिक याचिकाकर्ता की किसी भी समय मौत हो सकती है। चिकित्सकों की इस रिपोर्ट के बाद पुलिस हरकत में आई और याचिकाकर्ता को पुलिस ने कलेक्ट्रेट से षाम को सात बजे गिरफ्तार करके मेडिकल कालेज में भर्ती कराना चाहा। किन्तु याचिकाकर्ता की निश्ठा व संकल्प तथा मेडिकल रिपोर्ट देखकर मेडिकल कालेज अस्पताल ने भर्ती करने से मना कर दिया और आत्महत्या का मुकदमा बनाकर पुन: याचिकाकर्ता को अस्पताल लाने या मारपीट कर जबरदस्ती भोजन देने की सलाह पुलिस को दिया।  पुलिस ने अनषन समाप्त करने के लिए 12 बजे रात जबरदस्ती जूस पिलाने का प्रयास किया; षारीरिक उत्पीड़न का प्रयास किया व धमकियां दिया। किन्तु पुलिस को याचिकाकर्ता की निश्ठा के सामने झुकना पड़ा।  इसलिए पुलिस ने 1 बजे रात याचिकाकर्ता को पुन: धरना स्थल पर वापस लाकर छोड़ दिया।  जिला प्रषासन ने 11वें दिन से लिखा पढ़ी षुरू किया। कुछ स्थानीय नेताओं के सहयोग से प्रधानमंत्री राहत कोश से बच्ची के नाम 50 हजार रूपये का चेक याचिकाकर्ता को सौंपा गया, तब तक अनषन का चौदहवां दिन आ चुका था। 

              (iv)   अनषन के इस अनुभव के दौरान याचिकाकर्ता को समझ में आया कि समाज में कुछ लोग ऐसे हैं जो याचिकाकर्ता की तरह न्यायप्रिय लोग हैं, और वे अन्यायकारी अर्थव्यवस्था व राजव्यवस्था बदलने के लिए किसी मिषन का साथ दे सकते हैं।  याचिकाकर्ता ने इस अनषन में जीवित बच गई बच्ची के लिए आजीवन रू. 1750 मासिक की मांग किया, क्योंकि उस समय यह रकम औसत घरेलू क्रयषक्ति की रकम की आधी पड़ती थी।  यह रकम याचिकाकर्ता ने इस आधार पर मांगा था कि यह बच्ची रक्तपिता की मौत के बाद राश्ट्रपिता की आर्थिक सुरक्षा कवच में ही इज्जत के साथ जीवित रह सकती थी।  राश्ट्रपिता की बेटी होने के नाते हर महीना कम से कम उसे औसत क्रयषक्ति की आधी रकम का ही उपयोग करने का अधिकार मिलना चाहिएइसलिए याचिकाकर्ता ने कम से कम जितने में वह इज्जत के साथ जी सके वह रकम बच्ची के लिए आजीवन पेंषन के रूप में मांगा।  किन्तु याचिकाकर्ता की मांग पूरी नहीं हुई, उक्त बच्ची को उसका अधिकार देने की बजाय 50 हजार रूपये की अनुदान राषि दी गई, जो याचिकाकर्ता को भिक्षा स्वरूप लगी।  इसी कारण 50 हजार रूपये का चेक अनषन स्थल पर उपस्थित लोगों के लिए विजयोत्सव मनाने लायक लगा, वहीं याचिका कर्ता को यह चेक फुसलाने का एक जरिया लगा।  फिर भी याचिकाकर्ता को यह व्रत स्थगित करना पड़ा क्योंकि चेक प्राप्त हो जाने पर उन लोगों ने व्रत तोड़ने का दबाव याचिकाकर्ता पर बढ़ा दिया जो लोग अनषन के दिनों में याचिकाकर्ता के दिल के बहुत नजदीक पहुंच चुके थे।  उन लोगों ने सुझाव दिया कि नागरिकों के जन्मजात आर्थिक अधिकार की लड़ाई लड़ने के लिए आपका जीवित रहना आवष्यक है और इस लड़ाई में अब हम सब लोग आपके साथ हैं।  इस तर्क के सामने याचिकाकर्ता को झुकना पड़ा और अनषन स्थगित करना पड़ा।

              (v)    अनषन के दौरान घटी घटनाओं ने याचिकाकर्ता को प्रेरित किया कि अब कोई व्यक्ति बिना किसी की जान की कीमत पर जिंदा रहे इसका उपाय यही हो सकता है कि विरासत में धन प्राप्त करने का अधिकार कुछ लोगों तक सीमित रखने की बजाय सबको दिया जाये। पुरखों द्वारा कमाई गई सकल घरेलू विरासती सम्पत्तिा का किराया ही अब याचिकाकर्ता जैसे व्यक्ति को संकल्प के नाम जीने का साधन बन सकता है।

       अनषन के दौरान ही यह भी समझ में आया कि राश्ट्र की सकल घरेलू विरासती आय में सभी नागरिकों को हिस्सा मिले, इस अधिकार को दिलाने का कार्य व जिन लोगों के पास यह रकम औसत से ज्यादा है, उनमें यह रकम वापस दे देने का कर्तव्यबोध जगाने का कार्य ही अब याचिकाकर्ता का रोजगार होना चाहिए। 

(च)  आध्यात्मिक ज्ञान के क्षेत्र में कुछ निश्कर्शों का योगदान -

       यह कि प्रमुख याचिकाकर्ता आध्यात्मिक व दार्षनिक प्रष्नों पर सोंचने के लिए बाध्य हुआ। क्योंकि आज के सामाजिक, राजनैतिक व आर्थिक मूल्य इसी तरह के प्रष्नों के पारम्परिक उत्तारोें से पैदा हुए हैं। याचिकाकर्ता ने महसूस किया कि यदि इमारत दोशपूर्ण है तो जरूर ही यह दोश कहीं न कहीं सिविल इंजीनियरिंग के विज्ञान में है। उसने यह भी महसूस किया कि जब तक इस विज्ञान की जांच-पड़ताल नही किया जाता, तब तक इमारत को बेहतर बनाना संभव नही होगा। इसी बात का ध्यान हुए याचिकाकर्ता ने पदार्थ की उत्पत्तिा, जीव की उत्पत्तिा, मानव की उत्पत्तिा, मानव चेतना के स्वरूप, चेतना के द्वैताद्वैत स्वरूप , मतभेद के कारण, व्यक्ति-समाज-प्रकृति के अंर्तसंबंध......आदि विशयों पर आत्मचिंतन किया। आत्मचिंतन से निकले निश्कर्श चूंकी पारम्परिक निश्कर्शों से कुछ अलग थे इसलिए याचिकाकर्ता ने उन्हें लिपी-बध्द करने के लिए कुछ पुस्तकें लिखा। जिसमें से जनोपनिशद नामक पुस्तक इस याचिका के अध्याय - 13.1 के रूप में प्रस्तुत है।

(छ)  वैष्वीकरण के युग में अपेक्षित भारतीय संविधान में आवष्यक संषोधन प्रस्ताव की रचना -

       यह कि विष्व बाजार व्यवस्था के निर्माण की प्रक्रिया से याचिकाकर्ता सन 1990 से ही परिचित था। विष्व व्यपार संगठन की  स्थापना के लिए उन दिनों अंर्तराश्ट्रीय स्तर पर जो कवायद चल रही थी, याचिकाकर्ता उससे भी भलीभांति परिचित था। यद्यपि देषों की सरकारों की आर्थिक संप्रभुता को विष्व व्यापारियों के जिनेवा कार्यालय में स्थानांतरित करने के खिलाफ उन दिनों चल रहे स्वदेषी आंदोलनों का याचिकाकर्ता समर्थक था। किन्तु आंदोलनकारियों और विष्व व्यापारियों की षक्ति बेमेल लगती थी। इसलिए याचिकाकर्ता इस तरह के आंदोलनों में कभी भी सक्रिय न हो सका। आंदोलनकारियों की नियति को सही मानते हुए याचिकाकर्ता ने आर्थिक सुधारों से हुई हानि की भरपाई के लिए राजनैतिक सुधारों की आवष्यकता महसूस किया।    

       इसी जरूरत को देखते हुए याचिकाकर्ता ने भारत के संविधान में 76 पृश्ठों का संषोधन प्रस्ताव तैयार किया और प्रतीकात्मक जन स्वीकृति के लिए 130 गांव की पदयात्रा किया। 15 अगस्त 2000 को यह प्रस्ताव मेरठ जिलाधिकारी के माध्यम से तत्कालीन राश्ट्रपति श्री के0 आर0 नारायणन को भेजा गया और कुछ समय बाद उनसे मुलाकात करके इस विशय में विस्तार से बताया गया। 130 गांव की पदयात्रा के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए इस याचिका के अध्याय-10.2.3 (ड़) का संदर्भ लें, संषोधन प्रस्ताव  के लिए अध्याय 12.2 का संदर्भ ग्रहण करें ।

(ज)  मजदूरों के सवाल पर 83 दिनों की जेल यात्रा-

       उ.प्र. राज्य कताई मिल कॉरपोरेषन, कानपुर से संबंधित मेरठ स्थित कताई मिल को विनिवेष नीति के तहत सन्1998 में बन्द कर दिया गया। औने- पौने दाम में मिल को बेचने और दलाली खाने का एक अभियान उ.प्र. के कपड़ा सचिवालय, मिल प्रषासन, जिला प्रषासन, कुछ स्थानीय नेताओं और व्यापारियों द्वारा  चलाया गया। लगभग पूरे दो वर्श तक मजदूरों को वेतन नही दिया गया। 14 जनवरी 2000 को जिला प्रषासन द्वारा एक हलफनामा देकर मकान खाली करने को मजदूरों से कहा गया। हलफनामे में लिखवाया गया कि सरकार पर हमारा कोई बकाया नही है, हम अपनी मर्जी से मकान खाली करके चाभी प्रषासन को सौंप रहे हैं। इस हलफनामे के बदले मजदूरों यह लालच दिया गया कि सभी मजदूरों को वी.आर.एस. के रूप में मोटी रकम का चेक दिया जाएगा। प्रषासन ने आधी अधूरी रकम का चेक दिया, व रकम की गणना में जानकर धोखाधड़ी किया। चेक लेकर जब मजदूर बैंक गए तो चेक बाउन्स हो गए, बैंक प्रषासन ने चेक भुगतान रोंकने के लिए जिला प्रषासन के लिखित आदेष का हवाला दिया। ऐसी दषा में ठिठुरती ठंड में मिल परिसर के लगभग ढ़ाई हजार परिवार षीत लहरी की  रातें खुले आसमान के नीचे बिताने को मजबूर हो गए। 15 जनवरी बीती, 16 जनवरी बीती, 17 जनवरी बीती, 18 जनवरी की रात भी मिल कर्मचारी खुले आसमान के नीचे बिताने को मजबूर हो गए। मजदूर स्थानीय नेताओं व जनप्रतिनिधियों से मिले, किसी ने एक न सुनी।

       20 जनवरी को दोपहर 1 बजे प्रमुख याचिकाकर्ता कुछ लोगों के साथ 25 जनवरी को होने जा रही एक जनसभा में मजदूरों कों निमंत्रण देने पहुंचा तो मिल परिसर का ऐसा हाल था जैसे भूकम्प आ गया हो। सभी लोगों की सामानें बाहर पड़ी थी, कबाड़ी सामानों को औने-पौने दामों में खरीदकर ले जा रहे थे। बच्चे छटपटा रहे थे, बुजुर्ग मायूस बैठे थे। औरतों ने याचिकाकर्ता को तिनके का सहारा समझकर घेर लिया और विलाप करते हुए प्रषासन की अत्याचार गाथा का बयान करने लगी। याचिकाकर्ता इस दृय को देखकर 25 जनवरी की अपनी जनसभा की तैयारी भूल गया, जिसमें एक पूर्व प्रधानमंत्री श्री वी.पी.सिंह को भी आना था।

       मजदूरों के साथ हुए अत्याचार के विशय में मकान खाली कराने वाले डी.एम. से बात करने के लिए याचिकाकर्ता ने कुछ लोगों को साथ चलने को कहा। आपदा के मारे सभी मजदूर याचिकाकर्ता के साथ चलने का निवेदन करने लगे। ऐसी दषा में याचिकाकर्ता लगभग सभी दो हजार मजदूरों को लेकर 18 किलोमीटर की पैदल यात्रा पर चल पड़ा। तीन बजे से चलकर साढ़े सात बजे के लगभग याचिकाकर्ता सभी लोगों के साथ जिलाधिकारी कार्यालय पहुंचा तो वहां प्रषासन ने पूरा कलैक्ट्रेट पी.ए.सी. से घेरवा रखा था। चूंकि रात हो गई थी, इसलिए जिलाधिकारी को घर होने की संभावना थी। याचिकाकर्ता सभी लोगों के साथ जब घर की ओर मुखातिब हुआ तो देखा कि उसे रोंकने के लिए मुख्य गेट बन्द करवा कर रखा गया है। इन सभी घटनाओं ने साबित किया कि इस पूरे प्रकरण में जिलाधिकारी की शजिस का हाथ है। इसलिए जान की जोखिम लेकर याचिकाकर्ता बिना अनुमति के जिलाधीष का मेन गेट खोलकर उनके आवास के अंदर वाले कमरे में धरना दिया और जिलाधिकारी को संदेष भिजवाया कि 2000 लोगों के मकान छीनने से कितना कश्ट मजदूरोंको हुआ होगा, आज जिलाधिकारी को स्वयं उस कश्ट को महसूस करना चाहिए। याचिकाकर्ता ने ऐसे आचरण करने वाले को डी.एम. के पद के योग्य न मानते हुए प्रतीकात्मक बर्खास्तगी पत्र डी.एम. के स्टेनो को सौंपा। यह भी कहा कि क्षेत्रीय सभासद को प्रतीकात्मक जिलाधिकारी तब तक के लिए बनाया गया ह, जब तक मजदूरों के मकानों की चाभियां उन्हें वापस नही की जातीं। यह घटना देखकर डी.एम. के परिवार जन आवास से दूर कहीं चले गए। जिलाधिकारी को याचिकाकर्ता की यह कार्यवाही अपने प्रतिश्ठा पर चोट नजर आई। उन्होने बातचीत से समस्या का हल करने की बजाय बल प्रयोग के लिए पुलिस को आदेषित किया। लाठी चार्ज में बहुत से लोगों को चोटें आईं, प्रदर्षनकारियों को पुलिस ने खदेड़ दिया, याचिकाकर्ता पर इतने वार किए गए कि वह बेहोष हो गया, जिसे 2 घण्टे के बाद अस्पताल में होष आया, तो अपने हाथ में हथकड़ी लगा पाया। याचिकाकर्ता के साथ पुलिस ने 29 लोगों को गिरफतार कर फौजदारी की तमाम धाराएं लगाकर जेल भेज दिया। 

       मेरठ जेल में जाकर याचिकाकर्ता को पूर्णकालिक अनषन करने से सहकैदियों ने मना कर दिया, इसलिए याचिकाकर्ता ने मजदूरों की लड़ाई जीवित रहते हुए लड़ने के लिए 6 महीने तक केवल एक समय आधा पेट खाने का संकल्प ले लिया; जिसे जेल से बाहर निकलकर भी निभाया। डी.एम. ने इस बीच याचिकाकर्ता की प्ष्ठभूमि में कुछ कमी पकड़ने के लिए सारी मषीनरी लगा दिया, किन्तु कुछ हाथ न लगा। तब उसने याचिकाकर्ता का एक फर्जी आपराधिक इतिहास स्वयं अपनी कलम से लिख डाला और उसके आधार पर याचिकाकर्ता को राश्ट्र की आंतरिक सुरक्षा के लिए खतरनाक साबित करने के प्रयास के तहत राश्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम 1980 के कानून के अंतर्गत आगामी एक वर्श तक जेल में बन्द रखने का आदेष जेल प्रषासन को जारी कर दिया और अपने इस आदेष की मंजूरी के लिए राज्यपाल, उ.प्र व केन्द्रीय ग्ह मंत्रालय को आवेदन किया।

       22 जनवरी के इस आदेष को देखकर जेल में बन्द मजदूर बहुत दुखी हुए व उन्होने जेल में परस्पर सहमति से याचिकाकर्ता का साथ देने का फैसला किया, और जमानत कराने से मना कर दिया। याचिकाकर्ता व मजदूरों में फूट डालने के लिए जिलाधिकारी ने सबकी जमानत फर्जी कागजातों और अनधिकृत अधिवक्ता से करवा दिया, किन्तु कोई मजदूर जमानती भर के जेल से बाहर आने को तैयार नही हुआ।

       याचिकाकर्ता पर जिलाधिकारी द्वारा लगाए गए आरोपों की जांच करने के लिए राज्यपाल ने हाई कोर्ट इलाहबाद के तीन न्यायाधीषों का एक बोर्ड गठित किया। पुलिस याचिकाकर्ता को हथकड़ी में मेरठ से ले जाकर लखनउ जेल में डाल दिया व अगले दिन भारी सुरक्षा व्यवस्था के बीच न्यायधीषों के समक्ष पेष किया। न्यायाधीषों व याचिकाकर्ता के बीच सम्पन्न संवाद इस घटना को ठीक से समझने मे मदद कर सकता है। यह संवाद इस प्रकार है -

जज (1)   -     क्या नाम है, आपका?

याचिकाकर्ता (आगे से अभियुक्त) - जी; मुझे भरत गांधी कहते हैं।

जज (1)   -     आप राइटर हैं?

अभियुक्त   -    जी! 寸ेकिन प्रोफेषनल नहीं।

जज (1)   -     20 जनवरी की षाम को आपने डी.एम. मेरठ के परिवार पर हमला कर दिया और जिलाधिकारी आवास कब्जा कर लिया?

अभियुक्त   -    जी न;ही। कब्जा नही किया। धरना दिया।

जज (1)   -     क्या धरना डी.एम के आवास के अंदर दिया?

अभियुक्त   -    जी।& 

जज (2)   -     क्या! तुम कबूलते हो कि तुमने डी.एम. आवास के अंदर धारना दिया?     

जज (3)   -     जानते हो इसका अंजाम क्या होगा? पूरे जीवन जेल में सड़ जाओगे।

अभियुक्त   -    सर! 尰च्चाई कुबूलने की मोहताज नही होती। सच्चाई सच्चाई है, कुबूलिए तो सच्चाई है, न कुबूलिए तो सच्चाई है।

जज (1)   -     (अन्य जजों को चुप रहने का इषारा करते हुए ) आपने जो जवाब लिख कर भेजा है उससे पता चलता है कि आप तो एक लेखक है। कई पुस्तकें आपने लिखा है। सही गलत को जानते-परखते हैं। क्या डी.एम आवास के अंदर धरना देना आप उचित मानते हैं?

अभियुक्त   -    100 फीसदी अनुचित मानता हॅू।

जज (1)   -     जिसे आप 100 फीसदी अनुचित मानते हैं, उसे भी करते है?

अभियुक्त   -    सर! 寗दि उचित और अनुचित में से किसी एक को चुनना हो, तो उचित विकल्प चुना जाता है। यदि ज्यादा अनुचित व कम अनुचित में से ही एक विकल्प चुनना हो, तो जो कम अनुचित मार्ग होगा, वही अपनाया जाएगा।

जज (3)   -     (डांटने के अंदाज में ) डी.एम. आवास को कब्जा करना तुम्हारी नजर में कम अनुचित काम था?

अभियुक्त   -    सर! 娻गर आप उस दिन मेरी जगह होते। गाड़ी से उतरते ही औरतें व बच्चे आपको घेर कर अपने को घर से बेघर करने की गाथा बताने लगते। और बताते - बताते सभी बिलख-बिलखकर रोने लगते। फिर वे लोग आपको घर में ठंड से बीमार हो गए बूढ़ों और बच्चों को दिखाते। कालोनी के सबसे किनारे ले जाकर जले हुए मकानों को दिखाते और बताते कि- इन्हीं मकानों को जलाकर तापते हुए पिछली 6 ठिठुरती रातें हम लोगों ने काटी हैं। अगर आप कबाड़ियों को सामानें उठाकर ले जाते देखते। अगर आप सभी लोगों के मकानों के सामने  तितर-बितर पड़े हुए उनके बर्तनों, कपड़ाें, चारपाइयों को देखते और आप में मानवीय दर्द महसूस करने की संवेदना होती, तो आप केवल डी.एम. आवास के अंदर धरना ही न देते , आप डी.एम. का गर्दन भी काट सकते थे। मैंने तो केवल धरना दिया, और बातचीत के लिए डी.एम. को बुलाया। अगर वह मौके पर आकर बातचीत कर लेते तो बात आगे बढ़ती ही नही।

जज (2)   -     चार्जषीट में कुछ तो सच्चाई होगी? बिना आग के धूंआ नही निकलता।

अभियुक्त   -    सर! 宪ुलिस की लाठी चार्ज में जो भी खून बहा है, मिल के मजदूरों का बहा है। जो भी चोटें आई हैं, हमारे पक्ष के लोगों को आई हैं। जिनका न तो एफ.आई.आर लिखा गया, न तो उनका डॉक्टरी मुआइना हुआ। उल्टे डी.एम. ने सी.एम.ओ. को धमकाकर झूठा मेडिकल बनवा लिया। अपने कैम्प कार्यालय के सभी कर्मचारियों को घायल दिखा दिया। जिनके माथे पर दस साल पहले की चोट थी, उसे मेडिकल में लाठी की ताजी चोट बता दिया गया। और हमारे ऊपर आई.पी.सी. की जितनी धाराएं बन सकती थीं, सब लगा दिया। पुलिस ने धरनारत मजदूरों पर रात के अंधेरे में हमला किया और उस हमले में  जिलाधिकारी कार्यालय के किसी एक- दो कर्मचारियों को मजदूर समझकर मार दिया हो, घायलकर कर दिया हो तो बात अलग है। हमारी तरफ से मजदूरों ने हाथ तक नही उठाया। घायल करने की तो बात ही बहुत दूर है।

जज (1)   -     मिस्टर गांधी! अगर आपको जेल से छोड़ दिया जाए, तो धरना देने वाला हर आदमी डी.एम. का मकान कब्जा करने लग जाएगा। और अगर आपको जेल में ही रहने दिया जाए, तो आपके साथ अन्याय होता दिखता है। आप तो एक समझदार व्यक्ति हैं। अगर आप हमारी जगह होते तो क्या करते?

अभियुक्त   -    सर! 娻पना धर्म संकट हमारे ऊपर ट्रांसफर न करें तो अच्छा। यह देखना आपका काम है कि राश्ट्रीय सुरक्षा कानून में बन्द भरत गांधी क्या वास्तव में राश्ट्र की सुरक्षा के लिए खतरनाक है, या राश्ट्र निर्माता है? अगर वाकई भरत गांधी राश्ट्र की सुरक्षा के लिए खतरनाक है और आपने उसे छोड़ दिया तो वास्तव में अपराधियों का मन बढ़ेगा। और यदि भरत गांधी राश्ट्र निर्माता है, और आपने उसे जेल में साल भर के लिए डाल दिया, तो भ्रश्ट अफसरों की बन आएगी और इनके भ्रश्टाचार के खिलाफ आने वाले नई पीढ़ी के लोग यह घटना सुनते ही सन्न रह जाएंगे और वापस मुड़ जाएंगे। आप डी.एम. की चार्जषीट सही करार देते हैं तो फोर्जरी करने के लिए उसका मनोबल बढ़ेगा। वह दो-चार झूठे अन्य आरोप मेरे ऊपर जेल में रहते ही लगाएगा। अभी तो वह साल भर जेल में रखने की साजिष किया है, फिर जीवन भर जेल में रखने की साजिष करेगा। इस घटना के बाद समाज की समस्याओं के नाम पर अखबारों में फोटो खिचाने वाले नेताओं की संख्या बढ़ेगी, असली सत्याग्रही लोग चुप बैठ जाएंगे। अमर उजाला, दैनिक जागरण जैसे अखबारों के कैमरे की बटन दबते ही धरने उठ जाया करेंगे । मोथे की घासें धान को दबाकर ऊपर निकल आएंगी। यह आप तय करें, कि आपको देष में किस तरह का समाज कर्मी चाहिए और किस तरह का नौकरषाह?

जज (1)   -     ये बताओ, कि तुम्हारे खिलाफ फौजदारी के गम्भीर आरोप हैं। रासुका लगी है। 31 आदमी तुम जेल में हो। अगर तुमने कुछ नही किया तो जिला प्रषासन का क्या इण्टरेस्ट है, तुम सबको जेल में रखने में?

अभियुक्त        -   मैं लगभग दो महीने से जेल में हूं। बाहर क्या हो रहा है, इस बारे में मुझे कोई विषेश जानकारी नही है। किन्तु जेल में आने पर जब मजदूरों के साथ नियमित मुलाकात होने लगी, तो उन लोगों ने संबंधित कपड़ा मिल बेचने में किसी घोटाले की योजना की आषंका व्यक्त की। उन्होने बताया कि मिल का मूल्यांकन 180 करोड़ रूपया हुआ है, लेकिन तत्कालीन उद्योग सचिव, टैक्सटाइल कॉरपोरेषन कानपुर के बड़े अधिकारी, परतापुर मिल के प्रबंधक, मेरठ का जिलाधिकारी एक क्षेत्रीय विधायक और उ.प्र. षासन का एक तत्कालीन मंत्री ये सब मिलकर 180 करोड़ की मिल 20 करोड़ में किसी व्यापारी को बेचने की योजना बनाए थे। 20 करोड़ उ.प्र. सरकार को देने की योजना थी, षेश को आपस में बंटवारा करना था।

                           इस जानकारी से मैं यही नतीजा निकाल पाता हूं कि यदि मैं जेल से बाहर चला गया तो घोटाले की यह योजना परवान नही चढ़ पाएगी। इस सूचना के बाद ही जेल में यह बात मुझे समझ में आई कि चूंकि डी.एम. ने मिल की कालोनी खाली करवा के देने का वादा किया था, इसलिए कालोनी को खाली कराने के लिए तमाम गैर कानूनी आदेष दिए व गैर कानूनी आचरण किया। जब मेरी गिरफ्तारी हो गई, तो अगली रात में डी.एम. ने पुलिस बल से कालोनी में जगह-जगह आग लगवा दिया। कालोनी धूं-धूं कर जल गई। उसने मजदूरों के मन में दहषत फैलाने के लिए कालोनी में घोड़े दौड़वाए। मजदूर नेताओं की धर पकड़ का अभियान छेड़ा। सभी मजदूर और मजदूर नेता हजारों किलोमीटर दूर अपने सुदूर गॉव भाग जाने के लिए मजबूर हो गए। कालोनी खाली करा लिया।

                           अब जरा गणित लगाएं। उ.प्र. में मेरठ जैसी कुल 29 मिलें हैं। एक मिल में 2 हजार आदमी औसतन काम करते हैं। जिनकी संख्या लगभग 60000 हजार हुई। इन सभी का सरकार पर वी.आर.एस. भुगतान का लगभग 1500 करोड़ रूपया बकाया है। सम्पत्तिायां लगभग 60000 करोड़ की है। अगर मेरठ का प्रयोग सफल हो जाए, तो 7500 करोड़ रूपया घोटाले का लक्ष्य बनता है। अगर यह धन 10 लोगों में बंटे तो 75 करोड़ एक व्यक्ति को मिलता है। अगर 100 लोगों में बंटे, तो 7.5 करोड़ तक एक आदमी के हाथ लगता है।

                           सर! क्या आप लोग भारत की नौकरषाही का चरित्र इतना ऊँचा मानते हैं कि उसके अधिकारी व राजनेता इतनी बड़ी रकम पाने के लिए दो चार भरत गांधियों को आतंकवादी बनाकर जेल में नही डाल सकते?

जज (2)   -     क्या आपने अपने लिए किसी की सिफारिष करवाई?

अभियुक्त   -    नही&ं। मैने जमानत तक का कोई प्रयत्न नही किया।

जज (2)   -     सुरेन्द्र मोहन कौन है?

अभियुक्त   -    मैं नही जानता।

जज (2)   -     ये पूर्व सांसद हैं।

अभियुक्त   -    हां<, वो मेरे शुभचिंतक हैं। अखबारों में उनके नियमित लेख आते हैं।

जज (2)   -     आपने उनसे मदद मांगी?

अभियुक्त   -    नही&ं।

जज (2)   -     आपने अपने जवाब में वकील साथ लाने का निवेदन किया है। क्यों?

अभियुक्त   -    मुझ&े मालूम नही था, कि यहां वकील नही आ सकता।

जज (2)   -     बाहर जाइए।

जज (2)   -     डी.एम. को अंदर भेजो। (बाहर खड़े अर्दली को आवाज देते हुए)

       शनिवार 12 अप्रैल को याचिकाकर्ता को जेल प्रषासन ने उसकी बैरक में संदेषा भेजकर जेल कार्यालय लाया और राज्यपाल उ.प्र. षासन के फैक्स का हवाला दिया। फैक्स में लिखा था कि राज्य परामर्षदात्री परिशद (उक्त तीन जजों) की सिफारिष के आधार पर भरत गांधी के विरूध्द जिला प्रषासन द्वारा रासुका के अंतर्गत रचित आरोप पत्र खारिज कर दिया गया है। इसलिए जेल प्रषासन को आदेषित किया जाता है कि भरत गांधी को मेरठ कारागार से तत्काल रिहा करके रिहाई की सूचना तत्काल राजभवन को फैक्स द्वारा दें। जेल प्रषासन ने कई कागजातों पर हमारी दसों अंगुलियों (बाद में एक कट गई) का फिंगर प्रिंट लेकर राज्यपाल को फैक्स भेज कर बता दिया कि- ''संबंधित मामले में भरत गांधी को रिहा कर दिया गया, किन्तु अन्य मामलों में वांछित होने के कारण कारागार में रोक लिया गया है।'' यह अन्य मामला वही मामला था, जिसका एक दिन बाद सोमवार को फैसला आना था।

      सोमवार को 14 पृश्ठों का फैसला सुनाते हुए विषेश न्यायाधीश ने बताया कि फेसले में जेल प्रषासन को आदेषित किया गया है कि- जेल में बन्दी सभी लोगों को बेकसूर पाया गया है, इसलिए उनके रिहाई के आदेष दिए जाते हैं। साथ ही चूंकि अदालत में कार्यवाही के दौरान साबित हुआ कि एफ.आई.आर. करने वाला (जिलाधिकारी का स्टेनो) एक आपराधिक षाजिस किया, जिससे 31 लोगों को 83 दिन तक जेल में कैद रहना पड़ा और अदालत का कीमती समय बरबाद हुआ। इसलिए अदालत एफ0 आई0 आर0 करने वाले के विरूध्द 344 सी0 आर0 पी0 सी0 में 500 रूपये जुर्माना, या तीन महीने के कारावास या दोनों से दण्डित करने के लिए अलग से मुकदमा दर्ज करती है।

       मेरठ में 31 आदमियों को जेल में बन्द देखकर, मुख्यमंत्री व एक पूर्व प्रधानमंत्री के नैतिक दबाव को देखकर मामले की दिन प्रतिदिन सुनवाई के लिए एक विषेश अदालत में मामला स्थानांतरित किया गया। यहां याचिकाकर्ता ने अदालत के सामने अपना पक्ष स्वयं रखा। केवल 23 दिन की त्वरित अदालती कार्यवाही के बाद अदालत ने षुक्रवार 11 अप्रैल, 2001 को अपना फैसला सुनाने के लिए सुरक्षित रख लिया और फैसले के लिए सोमवार 14 अप्रैल की तिथि नियत किया। इस प्रकार याचिकाकर्ता 83 दिनों बाद षाम को अपने मजदूर साथियों सहित जेल से रिहा हुआ।  

(समाप्त)

(झ) राजनैतिक सुधार के लिए आर्थिक आजादी परिसंघ का गठन -

       यह कि इस अध्याय के पैरा (ड़) में अंकित 14 दिनों के अनषन के समापन के समय प्रमुख याचिकाकर्ता के संयोजकत्व में ही एक संगठन बनाने की भूमिका बन गई थी। जनवरी से दिसम्बर, 1999 के बीच इस संगठन के उद्देष्यों, नामकरण, स्वरूप, इसका नामकरण किया गया। तब से लेकर यह संगठन तमाम जनसभाओं, गोश्ठियों, पदयात्राओं, जुलूसा,ें प्रदर्षनों, धरनों, ज्ञापनों, पत्रव्यवहारों में निर्बलों के खिलाफ सबल लोगों के अत्याचार के खिलाफ संघर्शों के दौर से गुजरता हुआ संसद की याचिका समीति का दरवाजा खटखटा रहा है। आर्थिक आजादी परिसंघ के नाम से संचालित इस संगठन के कार्यकर्ताओं ने सक्षम राजनैतिक ढांचों के माध्यम से हर व्यक्ति को वोटरषिप की नियमित आमदनी सुनिष्चित करना तय किया है। जिससे पूरे संसार से गरीबी का खात्मा किया जा सके। और विष्वषांति का स्थाई प्रबंध हो सके। परिसंघ के बारे में और विस्तार से जानने के लिए इस याचिका के अध्याय 10.2.2 का अवलोकन करें।

(ञा) वोटरषिप के लिए लोकसभा में याचिका दायर करने में प्रमुख याचिकाकर्ता की भूमिका -

       यह कि आर्थिक आजादी आंदोलन परिसंघ वोटरषिप के लिए संघर्श करते हुए इस निश्कर्श पर पहुंचा कि केवल जनता के बीच ही धु्रवीकरण का काम नही करना चाहिए, अपितु साथ ही साथ संसद जैसा जो निकाय वास्तव में इस कार्य के लिए अधिकृत हैं, उसके संज्ञान में भी इस विशय को लाना चाहिए, और वह सब कुछ करना चाहिए, जिससे संसद मतदाताओं को जन्मना आर्थिक अधिकार यानी वोटरषिप दे। इस निश्कर्श के बाद संसदीय प्रकोश्ठ के नाम से परिसंघ का एक प्रकोश्ठ नवम्बर, 2004 में खोला गया। इस प्रकोश्ठ ने लोकसभा में याचिका दायर करने के लिए प्रकोश्ठ की एक याचिका समिति का गठन किया। इस समिति की और से याचिका की विशय वस्तु से लोकसभा के सांसदों को परिचित कराने व उन सभी से याचिका को लोकसभा में प्रस्तुत करने के लिये निवेदन करने का अभियान चलाया गया। प्रमुख याचिकाकर्ता ने स्वयं इस प्रकोश्ठ का प्रभार अपने उपर लिया, याचिका समिति में काम करने के लिए कुछ लोगों को संगठित किया। सम्पूर्ण याचिका के लेखन का काम किया, याचिका समिति की जिस टीम ने 06 दिसम्बर 2004 से23 दिसम्बर 2005 तक 228 सांसदों से मुलाकात किया,व उस टीम में मुख्य प्रवक्ता के रूप में उपस्थित रहा। याचिका में प्रमुख याचिकाकर्ता की भूमिका निभाते हुए वोटरषिप के प्रस्ताव के हर आयाम पर बहस करने के लिए लोकसभा की याचिका समिति के समक्ष तैयार भी है।

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भरत गांधी कोरोनरी ग्रुप                                                                                                         Naveen Kumar Sharma