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                                          खण्ड-तीन

 

 

वोटरषिप के प्रस्ताव के विरूध्द प्रमुख आपत्तियां

1. गरीब नागरिकों सम्बन्धी तर्क          

      (क) गरीब लोग षराब पी जायेंगे (?)               

      (ख) गरीब लोग जनसंख्या बढ़ायेंगे (?)             

      (ग) गरीब लोग काम करना बन्द कर देंगे (?)       

      (घ) गरीबों को गरीबी भत्ता मिले: सबको वोटरषिप नहीं (?)   

      (ड.) वोटरषिप केवल गरीबों को मिलें, सबको नहीं (?) 

 

वोटरषिप के प्रस्ताव के विरूध्द प्रमुख आपत्तियां

1.   गरीब नागरिकों संबंधी तर्क-

    (क) गरीब लोग षराब पी जायेंगे (?)

    यह कि अगर कुछ रकम गरीब मतदाताओं को सरकार की ओर से राश्ट्रीय उत्ताराधिकार में उनके हिस्से के रूप में मिलती है; तो इस रकम को उनके पास पहुंचने को इस आधार पर नहीं रोका जा सकता, कि- गरीब लोग उस पैसे की षराब पी जायेंगे; क्योंकि-

    (i)     सारे गरीब नागरिकों को षराबी कहना सच नहीं है, ऐसा कहने वाले की दृश्टि का दृश्टिदोश है।

    (ii)     जो गरीब नागरिक षराब पियेंगे, वे स्वयं तंगी की सजा भोगेंगे। क्योंकि अन्य जरूरतों को पूरी करने के लिए उनके पास पैसा बहुत कम बचेगा।

    (iii)     यह कि सभी गरीब लोग षराब पी जायेंगे, इस तर्क को मान लेने से उन गरीब लोगों का हक मारा जायेगा, जो षराब नहीं पीते। 

    (iv)     यह कि षराब के तर्क को मान लेने से उसकी पत्नी को भी उसका हक नहीं मिल पायेगा, जिसका पति षराब पीता हैं। जबकि बच्चों की सुचारू परवरिष के लिये व पत्नी के स्वास्थ्य की रक्षा के लिये उसका हक उसे मिलना आवष्यक है।

    (v)     यह कि षराबी नागरिक के हाथ में पैसा जाने से रोकने का न तो कोई कानून है, न तो कोई परम्परा ही।  अगर ऐसा कानून होता तो षराब पीने वाले अमीर नागरिकों के हाथ में पैसा जाने से रोका जाता।  इसीलिए केवल गरीब नागरिकों को ही षराब के आधार पर उनके हक से वंचित किया जायेगा, तो यह विधि के समक्ष समता के सिध्दांत व संविधान के अनु. 1415 का उल्लंघन होगा।

         ¼vi)   यह कि जब तक षराब पैदा करने की फैक्ट्री लगाना कानूनी है, जब तक षराब के ठेके को लाइसेंस देना कानूनी है, जब तक षराब की खरीद-बिक्री कानूनी है।  तब तक षराब पीना कुछ लोगों की नजर में अनैतिक तो हो सकता है, गैर कानूनी नहीं हो सकता। और तब तक षराब पीने का तर्क देकर गरीब नागरिकों को उनके हक से वंचित करना, या तो कुतर्क है, या गरीब नागरिकों के खिलाफ साजिष है, या दोनों है।

         ¼viiयह कि यह तर्क एबी0 संवेदी चेतना की स्वाभाविक उपज है।  स्पश्टीकरण के लिए परिभाशा अध्याय 1.2 (viii) का संदर्भ लें।

           उक्त पैरा (।) से (vii) के मद्देनजर षराब पी जाने के तर्क को गरीब नागरिकों के जन्मना आर्थिक हक के खिलाफ स्वीकार नहीं किया जा सकता।

(ख)  गरीब लोग जनसंख्या बढ़ायेंग (?)

     यह कि जन्म के आधार पर नागरिकों के बीच सरकार द्वारा किये जा रहे

आर्थिक भेदभाव पर अंकुष लगाने के उद्देष्य से यदि मतदाताओं को जन्मना आर्थिक अधिकार के रूप में नियमित कुछ रकम देकर सरकार प्रायष्चित करती है तो 'गरीब लोग इस रकम को ज्यादा से ज्यादा मात्रा में खींचने के लिये ज्यादा से ज्यादा बच्चे पैदा करेंगे'- यह तर्क देकर गरीब नागरिकों को उनके प्राकृतिक अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता, क्योंकि -,

            (i)         यह कि कुछ नियमित रकम की सुनिष्चित आय देखकर गरीब नागरिकों में भी आर्थिक सुरक्षा की मन:स्थिति पैदा हो जायेगी।  यह मन:स्थिति वोटरषिप को अपने बुढ़ापे के सहारे के रूप में देखेगी, और अपने बच्चों पर से निर्भरता को न्यून कर देगी।  जब बुढ़ापे के लिए बच्चों की जरूरत नहीं समझ में आयेगी तो गरीब नागरिक भी बच्चे पैदा करेंगे-अपनी अंतर्निहित वात्सल्य की प्यास बुझाने के लिये; न कि परिवार की अर्थव्यवस्था के लिये ।  आज की वर्तमान अर्थव्यवस्था में गरीब परिवारों के लिए ज्यादा बच्चे पैदा करना आवष्यक होता है, क्योंकि ज्यादा बच्चे आय के ज्यादा स्रोत पैदा करते हैं । 

            (ii)         यह कि जनसंख्या के आंकड़े इस बात का गवाह है कि गरीब परिवारों में बच्चे ज्यादा संख्या में पैदा होते हैं।  भारत संघ के मुस्लिम व अनुसूचित जातियों/जनजातियों के गरीब परिवार इसके उदाहरण हैं। इस वृध्दि दर का कारण इन दोनों समुदायों की अपेक्षाकृत गरीबी है, न कि अलग राश्ट्र बनाने की साजिष; जैसा कि यह मिथक बहुप्रचारित है।  यदि अलग राश्ट्र बनाना जनसंख्या बढ़ाने का कोई प्रेरक होता तो जनसंख्या पंजाब जैसे उन समुदायों में अधिक बढ़ी रहती, अलगाववादी आंदोलन जहां के इतिहास में दर्ज है।

            (iii)        यह कि 'जितने ज्यादा बच्चे होंगे, उतनी ही ज्यादा परिवार की अर्थव्यवस्था मजबूत होगी'- यह मान्यता गरीब परिवारों में स्वीकार्य है।  क्योंकि सरकार द्वारा पर्याप्त आर्थिक सुरक्षा मुहैया न कराये जाने के कारण गरीब परिवारों को यह भय बना रहता है कि अगर 10 बच्चे पैदा होंगे, तभी पाँच जीवित रहेंगे।  षेश बचे पाँच में से 2-3 अगर नालायक निकल गये, तो कम से कम एक-दो बच्चे परिवार की आय का जरिया बनेंगे।  इसीलिये ज्यादा बच्चे पैदा करने की मूल प्रेरणा गरीबों के साथ आर्थिक अन्याय करने वाली वर्तमान अर्थव्यवस्था देती है।  जनसंख्या वृध्दि पर प्रभावषाली व न्यायिक अंकुष अर्थव्यवस्था के इस अन्याय को समाप्त करने से लगेगा; न कि विज्ञापन करने से या वोटरषिप की खिलाफत करने से।

            ¼v)    यह कि सरकार द्वारा प्राप्त होने वाले मतदाताओं के जन्मना आर्थिक हक के प्रस्ताव के खिलाफ जनसंख्या बढ़ने का तर्क उस दषा में स्वीकार्य हो सकता था, जब यह रकम बच्चे को पैदा होते ही मिलती।  चूंकि प्रस्तावित रकम एक 18 वर्श के वयस्क मतदाता को प्राप्त होगी, इसीलिए 18 वर्श तक बच्चे के पालन-पोशण-षिक्षा-चिकित्सा का उत्तारदायित्व माँ-बाप को, वहन करना ही होगा। यदि ज्यादा बच्चे होगे तो मां-बाप को स्वयं, तंगी की सजा भुगतनी होगी।  इसी सजा की डर से गरीब लोग भी अमीर नागरिकों की तरह ही में बच्चे कम संख्या में पैदा करने लगेंगे।

            ¼vi)   यह कि आर्थिक संपन्नता से परिवार में बच्चों की पैदावार कम हो जाती है।  इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है-उन भारतीय मुसलमानों व दलितों में मौजूद अमीर नागरिकों का परिवार; जिन समुदायों पर ज्यादा जनसंख्या पैदा करने का कथित आरोप प्रचारित है।  चूंकि जन्माधारित आर्थिक अधिकारों की मान्यता देने से सभी मतदाताओं की आर्थिक संपन्नता बढ़ जायेगी, इसीलिए केवल अमीर लोगों में ही नहीं, गरीब नागरिकों में भी बच्चों की पैदावार कम हो जायेगी।

            ¼vii)   यह कि -'गरीब नागरिकों को भी जन्मना आर्थिक अधिकार दे देने से वे बच्चों की संख्या बढ़ा देंगे'- इसके पीछे एक आषय यह भी छिपा है कि अमीर लोगों को सरकार द्वारा अमीरी का पुरस्कार इसीलिए दिया गया है-क्योंकि वे कम बच्चे पैदा किये हैं।  इस तर्क को दो कारणों से स्वीकार नहीं किया जा सकता।  पहला यह कि अमीर लोग कम बच्चे इसलिए पैदा नहीं करते कि उन्हें राश्ट्र की बड़ी परवाह रहती है।  अपितु इसलिए कम बच्चे पैदा करते हैं, क्योंकि उनके परिवार की अर्थव्यवस्था में केवल उतने ही बच्चों की जरूरत होती है।  दूसरा यह कि अमीर नागरिकों में कम बच्चा होना उनका कोई प्रयास नहीं है, संपन्नता का स्वाभाविक परिणाम है।  संपन्नता पहले आयी, फिर कम बच्चों का परिण्ााम दिखा।  यही तर्क गरीब नागरिकों पर भी सरकार को लागू करना चाहिए।  संपन्नता की गारंटी पहले दे, फिर गरीब परिवारों में परिवार नियोजन का परिणाम देखने जाये। या फिर ऐसी षर्त लागू करे।  अगर सरकार ऐसा नहीं करती तो सरकार पर यह आरोप साबित हो जायेगा कि सरकार ने जानबूझकर जन्म के आधार पर आर्थिक भेदभाव की राजव्यवस्था कायम कर रखी है और  इस व्यवस्था के माध्यम से सरकार स्वयं गरीब नागरिकों द्वारा जनसंख्या बढ़ाने का काम कर रही है। 

            ¼viii)   यह कि जनसंख्या की बढ़वार को समाज के लिए अभिषाप के रूप में दो कारणों से सिध्द नहीं किया जा सकता।  पहला यह कि सन् 1947 में भारत की जनसंख्या सन् 2000 की तुलना में तीन गुना कम थी।  जबकि सकल घरेलू उत्पादन चार गुना कम था। यानी लगभग गत 50-60 वर्शों में जनसंख्या तीन गुना बढ़ी; लेकिन पैदावार चार गुना बढ़ गई।  ऐसा नहीं कहा जा सकता कि जनसंख्या में जो नया हिस्सा जुड़ा; वह अपने हाथों से कुछ पैदा नहीं किया।  दूसरा यह कि अगर एक या दो बच्चे पैदा करने का कोई अभेद्य इंतजाम अतीत में होता, तो इतिहास के तमाम वे ऋशि, महात्मा, राजनीतिज्ञ, साहित्यकार, कलाकार, दार्षनिक व वैज्ञानिक पैदा ही न हो पाते, जो अपनी माँ के चौथी, पाँचवीं, सातवीं या दसवीं संतान के रूप में पैदा हुए थे।  यही उपयोगिता देखकर अतीत में लगभग सभी धर्मों के महापुरूशों ने बच्चों की अधिसंख्या को प्रोत्साहित किया। 

            ¼ix)   यह कि उक्त तर्क एबी. संवेदी चेतना से पैदा हुआ है स्पश्टीकरण के लिए इस याचिका के अध्याय 1 पैरा 2 (viii) का संदर्भ लें।

       उक्त बिन्दु (i) से (ix) तक के तथ्यों से यह साबित होता है कि मतदाताओं को जन्मना आर्थिक अधिकार मिलने से जनसंख्या वृध्दि दर घटेगी, न कि बढ़ेगी, जैसी कि भविश्यवाणी की जाती है।  सच्चाई तर्क के विपरीत होने के कारण जनसंख्या वृध्दि की आषंका को स्वीकार नहीं किया जा सकता।

(ग)  गरीब लोग काम करना बन्द कर देंगे (?)

       'राश्ट्र के साझे धन में से यदि गरीबों को भी उनका हिस्सा नियमित रूप से सरकार उन्हें वापस करने लगेगी, तो गरीब लोग काम करना बंद कर देंगे'-इस तर्क को जिन कारणों से स्वीकार नहीं किया जा सकता, वे कारण इस प्रकार हैं-

            ¼i)    यह कि स्वामित्व का सिध्दांत ही है, कि कोई व्यक्ति अपने स्वामित्व की किसी चीज का इस प्रकार उपयोग कर रहा हो; जिससे किसी दूसरे का नुकसान न हो रहा हो, तो ऐसे स्वामित्व पर ऐसी कोई षर्त नहीं लगाई जा सकती; जो षर्त स्वामित्व के सिध्दांत के ही खिलाफ हो या उसे सीमित करती हो।  चूंकि मतदाता को सरकार के माध्यम से मिलने वाली प्रस्तावित रकम पर उसका स्वामित्व है; इसलिए उसकी इस रकम को उसके पास वापस करने के लिए - काम करने की षर्त लगाना उसी प्रकार है, जैसे बैंक में धन जमा करने वाला व्यक्ति रकम निकासी के लिये जाये, तो बैंक का कैषियर उससे काम करने की षर्त रख दे।  अत: जब तक निजी स्वामित्व का सिध्दांत मान्यता प्राप्त होगा, तब तक मतदाता के हिस्से की रकम मतदाता के पास पहुंचाने के लिए काम करने की षर्त नहीं रखी जा सकती।

            ¼ii)    यह कि जब तक संसद उत्ताराधिकार कानून के माध्यम से, कुछ मतदाताओं; जो किसी सम्पन्न व्यक्ति की संताने हैं; को उत्ताराधिकार में चल व अचल संपत्तिा देने से पूर्व काम करने की षर्त नहीं रखती।  तब तक अन्य मतदाताओं को भी राश्ट्र की आर्थिक विरासत में उनका हिस्सा वापस करते समय काम करने की षर्त नहीं लगा सकती।  यदि ऐसी षर्त लगाती है तो संसद स्वयं विधि के समक्ष समता के सिध्दांत का उल्लंघन करने की दोशी होगी।

            ¼iii)   यह कि मतदाता को नियमित प्राप्त होने वाली प्रस्तावित रकम सकल घरेलू उत्पादन के उस हिस्से में एक मतदाता का हिस्सा है; जो उत्पादन प्राकृतिक संसाधनों के कारण होता है।  सकल घरेलू उत्पाद में प्रकृति के हिस्से से संबंधित उत्पादन के बारे में और ज्यादा जानकारी के लिये इस याचिका के 3.3 (ज) का संदर्भ लें।

            ¼iv)   यह कि आर्थिक अवसरों की समता के साधन के रूप में मतदाताओं को नियमित मिलने वाली प्रस्तावित नकद रकम सकल घरेलू ब्याज की आधी रकम में एक मतदाता का हिस्सा है, यह रकम मूलधन के स्वामी को, उसके अलावा अन्य लोगों द्वारा परिश्रम करने से मिलती है।  ब्याज की कम से कम आधी राषि, षेश आधी राषि को 'बिना मेहनत किये आय प्राप्त करने के षुल्क या कर स्वरूप' छोड़नी ही चाहिए। जिससे इस रकम का समान वितरण मतदाताओं में किया जा सके।  इस विशय में यह तर्क निराधार साबित हो चुका है कि ब्याज की आधी रकम मूलधन के स्वामी से लेकर मतदाताओं में वितरित करने के लिए सरकार ले लेगी तो लोग बैंक में पैसा ही जमा नहीं करेंगे।  अगर यह बात सत्य होती तो सन 1998 तक प्रचलित 18 प्रतिषत ब्याज की दर जब 9 प्रतिषत पर कर दी गई; तो लोग बैंकों में पैसा जमा करना बंद कर दिये रहते। ऐसा नहीं हुआ।  इससे साबित होता है कि सकल घरेलू ब्याज की राषि में से एक मतदाता को उसका हिस्सा नियमित रूप से सरकार वापस देने लगती है तो इस वापसी के बदले काम की षर्त नहीं लगाई जा सकती। क्योंकि यह रकम उसका पारिश्रमिक नहीं, साझे धन में उसका हिस्सा है।

            ¼v)    यह कि बैंकों से ब्याज की रकम के रूप में नियमित रूप से कुछ धनराषि प्राप्त करने वाले नागरिकों की संख्या थोड़ी नहीं बड़ी संख्या में आज भी है।  इन नागरिकों ने अपनी षारीरिक षक्ति के साथ-साथ अपनी दिमागी षक्ति भी उत्पादन में लगाया है।  इससे साबित होता है कि यह तर्क निराधार है कि मतदाताओं को सरकार की ओर से नियमित धनराषि प्राप्त होने लगेगी तो गरीब मतदाता काम करना बंद कर देंगे (और अमीर मतदाता काम करते रहेंगे)। यह तर्क अपने ही तर्क को काटता है, अंतर्विरोधी है, साक्षत् प्रमाण को नकारता है, व आर्थिक क्रूरता की सोंच की उपज है।  साथ ही इस तर्क को केवल उसी दषा में स्वीकार किया जा सकता है; जब ब्याज के रूप में रकम प्राप्त करने, ब्याज का धंधा-व्यवसाय करने, ब्याज की षर्त पर लेन-देन करने को दण्डनीय अपराध घोशित किया जाये। चूंकि ब्याज की व्यवस्था पूंजी के स्वामी को बिना काम किये नियमित आय का जरिया मुहैया कराती है, इसलिए इस व्यवस्था के कारण ब्याज पाने वाले लोग निकम्मे हो जाते हैं; यह तर्क उस दषा में अवष्य ही स्वीकार करना होगा जब गरीब मतदाताओं के संदर्भ में इसे स्वीकार कर लिया गया हो।  ब्याज की रकम को साझे धन के रूप में और ठीक से समझने के लिए इस याचिका के अध्याय -13 के साक्ष्य-चार का संदर्भ ग्रहण करें। 

            ¼vi)   यह कि बैंक को माध्यम बनाकर पैसा बाजार के हवाले करने से जो रकम बैंक देती है, उसे ब्याज के नाम से जाना जाता है ।  उसी प्रकार अचल संपत्तिा जैसे जमीन, मषीन व मकान इत्यादि को जब बाजार के हवाले किया जाता है; तो इससे जो धनराषि नियमित मिलती है, उसे किराया कहते हैं।  यह ब्याज का ही दूसरा रूप है। अगर यह तर्क स्वीकार किया जायेगा कि मतदाताओं को मिलने वाली नियमित रकम गरीब मतदाताओं को निकम्मा बनायेगी तो फिर यह तर्क अमीर मतदाताओं पर भी अवष्य लागू करना होगा। और इसीलिए यह भी मानना होगा कि ब्याज व किराया प्राप्त करने वाले सभी अमीर नागरिक निकम्मे हो चुके हैं। यह तर्क मान लेने से ही विधि के समक्ष समता के सिध्दांत की रक्षा हो पाएगी। और अगर दोनों के मामले में इस तर्क को स्वीकार कर लिया गया तो उक्त अचल संपत्तिा का किराये की संविदा पर किया जाने वाला उपयोग भी दण्डनीय अपराध घोशित करना होगा। यदि सरकार ऐसा नहीं करती तो साबित हो जायेगा कि सरकार ने जानबूझकर गरीब मतदाताओं को आर्थिक कारागार में डालकर उन्हें आर्थिक गुलाम बना रखा है, व उनके साथ एक घरेलू नागरिक की बजाय घरेलू दास, या घरेलू नौकर या घरेलू जानवर जैसा व्यवहार कर रही है।

            ¼vii)   यह कि कुछ दषकों पूर्व 20 किलो मीटर पैदल चलने में 10 घंटs लगते थे।  अब मषीनों के सहारे उतनी ही दूरी 10 घंटे की बजाय आधे घंटे में ही तय की जा सकती है।  हाथों से बुनाई करके जितने मीटर कपड़ा पहले 100 दिन में तैयार होता था अब वह एक दिन में मषीनों के सहारे तैयार होता है।  इस तरह के उदाहरणों से यह साबित होता है कि मषीनों के कारण मानव जाति को कठोर परिश्रम से राहत मिली है।  मषीनों के सहारे एक आदमी के जरूरत की रोटी-कपड़ा व मकान अब एक घंटे से भी कम समय के परिश्रम से पैदा हो रहा है, जिसके लिए पहले 16 घंटे तक परिश्रम अपेक्षित था।  किन्तु अर्थव्यवस्था के अत्याचारी प्रबंधन के कारण चारों तरफ प्रत्यक्ष तौर पर यह दिखाई दे रहा है कि मषीनों द्वारा इतनी राहत उपलबध कराने के बावजूद भी अपने रोटी-कपड़ा-मकान के लिए गरीब मतदाताओं को 14 घंटे का कठोर परिश्रम आज भी करना पड़ रहा है; जबकि अमीर लोग व उनके बच्चे काम करने के नाम पर दिन भर गाड़ी लेकर इधर-उधर घूमते व मनोरंजन करते हैं।  इससे साबित होता है कि मषीनों द्वारा उपलब्ध कराये गये राहत व फुरसत के क्षणों में से गरीब मतदाताओं के हिस्से को अमीर लोगों ने सरकार के सहारे हड़प लिया है।  जबकि मानसिक तथा आध्यात्मिक स्वास्थ्य के लिए फुरसत के इन क्षणों में हर मतदाता को हिस्सा मिलना आवष्यक था। वस्तुत: मतदाताओं को सरकार की तरफ से मिलने वाली वोटरषिप के नाम से प्रस्तावित रकम सरकार द्वारा गरीब मतदाताओं के अपहृत फुरसत के क्षणों को उन्हें वापस दिलाने का साधन है।  इसलिए इस रकम को देने के बदले परिश्रम की षर्त नहीं लगाई जा सकती।

            ¼viii)   यह कि अर्थषास्त्रीय चिंतन के परम्परागत निश्कर्शों में मषीनों के कारण अब बहुत बड़ा बदलाव आ गया है।  वह बदलाव यह है कि अब धीरे-धीरे सकल घरेलू उत्पाद में जमीन का हिस्सा घटता जा रहा है व मषीन का हिस्सा बढ़ता जा रहा है।  कम्प्यूटर जैसी मषीनें जहाँ पढ़े-लिखे (स्किल्ड) लोगों के कार्यों को अपने कंधों पर लेती जा रही हैं, वहीं दूसरी तरफ बुल्डोजर जैसी मषीनें निरक्षर श्रमिकों को कार्य बाजार से हटा रही हैं।  यहां तक कि कुछ ऐसी मषीनें हैं, जो एक ड्राइवर के सहारे दिन भर में उतनी मिट्टी फेंकने का कार्य कर देती हैं, जितनी मिट्टी फेंकने के लिए 1000 मजदूरों की जरूरत होती है।  इस एक मषीन के कारण 1000 मजदूर बेरोजगार हो जाते हैं। अगर इनकी मजदूरी जोड़ें तो औसतन 80 रूपये की दर से प्रतिदिन लगभग 80,000 रूपये, एक महीने में 24 लाख रूपये; एक वर्श में दो करोड़ अट्ठासी लाख रूपये; एक मषीन मजदूरों की बस्ती से छीन कर ठेकेदारों, मषीन मालिकों व मषीन निर्माताओं की बस्ती में पहुँचा देती है।  अगर मषीन के ड्राइवर, उसके इंधन व रखरखाव का व्यय घटा दें, तो ड्राइवर का 60,000 रूपये, इंधन का (20 लीटर 25रूपये की दर से 365दिन का व्यय) 1,82,000 रूपये दोनो जोड़कर केवल 2,42,000 रूपये ही आते हैं।  यदि अन्य खर्चों को जोड़ लें, और दो लाख 42 हजार की रकम को 88 लाख तक भी बढ़ा देतो भी एक मषीन का वार्शिक परिणाम यह है कि वह 999 लोगों को बेरोजगार कर रही है, कम से कम दो करोड़ रूपये मजदूरों से छीनकर मषीन संचालकों के हाथ में भेज रही है।  मतदाताओं को मिलने वाली प्रस्तावित रकम सरकार द्वारा की गई इसी तरह की क्षतिपूर्ति है। इस क्षतिपूर्ति को देने के लिए काम करने की षर्त नहीं लगाई जा सकती । क्योंकि मषीन के युग में उत्पादन श्रमिक निरपेक्ष होता जा रहा है। अब काम की पारम्परिक परिभाशा में संषोधन करना होगा कार्य की परिभाशा में संषोधन के लिए याचिका के अध्याय- 3.3(ग) का संदर्भ लें।

            ¼ix)   यह कि उक्त पैरा (viii) से साबित होता है; मतदाताओं को जन्मना आर्थिक हक देने की खिलाफत करने वाले लोग केवल गरीब मतदाताओं पर काम की षर्त लगाने की जिद करते हैं। यह जिद करने वाले अर्थव्यवस्था की नवीनतम प्रवृत्तिायों के विष्लेशण्ा से अनभिज्ञ हैं।  इन्हें यह नहीं मालूम कि मतदाताओं को जन्मना आर्थिक अधिकार देने से उत्पादन की मूल धारा विक्षेपित नहीं होगी; क्योंकि मषीनों ने उत्पादन के लगभग हर क्षेत्र में अपनी जगह बना लिया है।  इसलिए कार्य करने की जिद एक परम्परावादी, तोतारटंत, क्रूर व अज्ञानतापूर्ण दुराग्रह है।  यह कोई विकास की षुभचिंता से पैदा हुआ आग्रह नहीं है।  इसलिए अस्वीकार्य है।

            ¼x)    यह कि विष्व अर्थव्यवस्था की 1994 मे निर्मित आचार संहिता ने मषीन और श्रमिक संबंधों को बहुत गहराई से प्रभावित किया है।  विष्व व्यापार समझौते की तमाम धाराओं के कारण अब देष की सरकार की सम्प्रभुता सीमित हो गई है।  उत्पादन प्रणाली में अब देष की सरकार को तकनीकी विनियमन का अधिकार नहीं रहा।  अंतर्राश्ट्रीय प्रतिस्पर्धा में कम से कम लागत में अधिक से अधिक गुणवत्ताा की वस्तुएं उच्च से उच्च तकनीकी अपनाने से ही पैदा हो सकेंगी।  इस तरह की तकनीकी का निसंदेह परिणाम होता है, श्रम बाजार से श्रमिकों का निश्कासन।  चूंकि देष की सरकार के अधिकार क्षेत्र तथा क्षमता और विष्व व्यापार समझौते के अधिकारक्षेत्र तथा क्षमता को देखते हुए यह निष्चित निश्कर्श निकलता है कि काम देना देष की सरकार के अधिकार क्षेत्र से बाहर की बात हो गई है।  अंतर्राश्ट्रीय प्रतिस्पर्धा होने के कारण कार्य देनs की आषा उद्योग-व्यापार प्रतिश्ठानों से भी नहीं की जा सकती।  अत: मतदाताओं को मिलने वाली प्रस्तावित रकम के साथ कार्य की षर्त जोड़ने का दुराग्रह करने वालों के पास कार्य देने का कोई प्रबंध है ही नहीं। इनकी जिद स्वीकार करने का तो कोई औचित्य ही नहीं है।

            ¼xi)   यह कि विष्व व्यापार समझौते के कारण देष की सरकार के सीमित हो गई संप्रभुता को देखते हुए उद्योग-व्यापार व बाजार की उक्त कारण से ही लगातार बढ़ती जा रही ताकत को देखते हुए, मषीनों के हर रोज बढ़ते कदम व बढ़ती मात्रा को देखते हुए-यह तय है कि अगर इन कारकों में कोइZ फर्क नहीं पड़ता-तो श्रम बाजार से श्रमिकों के निश्कासन की प्रवष्त्तिा भविश्य में भी जारी रहेगी।  इससे श्रम बाजार में श्रमिकों की संख्या बढ़ती जायेगी व श्रम का बाजार मूल्य गिरता जायेगा।  और इस हद तक गिरता जायेगा कि श्रमिक अपने श्रम की सौदेबाजी करने की क्षमता को भी खोता जायेगा।  जितनी संख्या में श्रमिक सौदेबाजी की क्षमता खोते जायेंगे, उतनी संख्या में श्रमिक बाजार के न्याय से वंचित होते जायेंगे व उतनी ही संख्या में श्रमिकों के साथ बलात्कार्य संभव होता जायेगा।  मतदाताओं को प्राप्त होने वाली वोटरषिप के नाम से प्रस्तावित रकम सभी श्रमिकों को बाजार का न्याय प्राप्त करने का अवसर मुहैया कराने का साधन है क्योंकि इस रकम के कारण श्रमिक अपने श्रम से सौदागरों से सौदेबाजी कर सकेगा।  इस रकम के कारण उनके साथ आर्थिक बलात्कार करना असंभव हो जायेगा।  इसलिये इस रकम के साथ काम करने की षर्त नहीं जोड़ी जा सकती। मजदूरों पर पड़ने वाले प्रभावों की और विस्तार से जानने के लिए इस याचिका के अध्याय - 3.4(ञा) और 5.2 का संदर्भ ग्रहण करें।

            ¼xii) यद्यपि उक्त पैरा (viii, ix, x, xi) से साबित हो चुका है कि काम के परम्परागत अर्थों में काम देना अब न तो वर्तमान सरकार के वष की बात है और न तो उद्योग-व्यापार प्रतिश्ठानों के वष की ही बात है।  फिर भी यदि यह तर्क दिया जाता है कि विकास का कार्य तो श्रमिकों के साथ बलात्कार्य से ही होता है और यदि श्रमिकों के साथ बलात्कार होने की संभावना पर कोई सरकार रोक लगा देती है तो विकास पूरी तरह ठप्प पड़ जायेगा।  यह तर्क अगर भारत संघ की संसद स्वीकार करती है तो इसके कम से कम कुल नौ निहितार्थ होंगे।  पहला यह कि- ''तथाकथित विकास जैसे तथाकथित अच्छे परिणाम पाने के उद्येष्य से किसी व्यक्ति व किसी समुदाय के साथ बलात्कार करना कानूनी आचरण करना है''। 

ृ     दूसरा ''पहला निश्कर्श स्वीकार कर लेने पर स्त्रियों के साथ बलात्कार करने वाले अपराधियों के लिए दण्ड का प्रावधान हटाकर पुरस्कार का प्रावधान करना होगा''।  कुछ बलात्कारी यह साबित कर सकते हैं कि वे फलां स्त्री से बलात्कार न किये रहते तो फलां नदी पर बने पुल का नक्षा उनके दिमाग में पैदा ही न होता।  पुल जैसे अच्छे परिणाम प्राप्त करने के लिए ऐसे ठेकेदार व इंजीनियर स्त्रियों के साथ बलात्कार को अपना मूलाधिकार बनाने की मांग करें, तो संसद को उनकी मांग के समर्थन में एक और कानून बनाना होगा। 

       तीसरा, भारत की जन्मना वर्णव्यवस्था में विष्वास करने वाले उंची जाति के लोगों को नीची जाति के लोगों के साथ मान-मर्दन, षील भंग, बेगारी कराने का अधिकार संसद को देना पड़ेगा, क्योंकि वे अपनी सामुदायिक आस्थाओं का हवाला देकर आग्रह कर सकते हैं कि पिछले जन्म में उन्होंने ब्याज का और किराये का धंधा करने वालों जैसा ही त्याग-तपस्या करके उंची जाति व अमीर परिवार में जन्म लिया है।  वे तर्क देंगे कि पिछले जन्म के त्याग-तपस्या के बदले उन्हें इस नये जन्म में भोग-विलास तथा नीची जाति के लोगों के साथ बलात्कार करने का जन्मसिध्द अधिकार है।  संसद को इनके इस अधिकार को मान्यता देनी होगी। 

       चौथा, अच्छा परिणाम पाने के लिए बलात्कार को सही ठहराने वाला तर्क संसद को प्रेरित करेगा कि जो डकैत, डकैती की रकम से गरीबों की षादी-विवाह करवाता हो, समाज में बढ़ती जा रही आर्थिक विषमता को कम करता हो, स्वयं भोग-विलास व स्त्री सुख से दूर एक कुटिया में तपस्वी का जीवन जीता हो, उसे किसी भी व्यक्ति के घर डकैती डालने का, लूट करने का, हत्या करने का कानूनी अधिकार दिया जाये।  ऐसे डकैत मांग करें कि स्थानीय पुलिस उनकी मदद में लगाई जाये, तो ऐसी मदद देने वाला कानून संसद को पारित करना होगा। 

       पाँचवां, यदि सभी तरह के बलात्कारियों को पहचान-पहचान कर हत्या करने का दावा करने वाला कोई व्यक्ति या कोई समुदाय संसद से अच्छे परिणाम वाला यह कार्य करने के लिए हत्या करने का अधिकार मांगे तो संसद को ऐसा कानून बनाना होगा। 

       छठा, संसद यदि यह बात स्वीकार कर लेती है कि बिना श्रमिकों के साथ आर्थिक बलात्कार किये विकास का कार्य नहीं हो सकता तो संसद उद्योगपतियों, इंजीनियरों, ठेकेदारों व सरकारी अधिकारियों के उस दावे को स्वीकार नहीं कर सकती; जिसमें वे लोग दावा करते हैं कि विकास करने में प्रमुख जिम्मेदारी इन्हीं लोगों ने निभाई।  इसलिए ज्यादा पैसे प्राप्त करने का पुरस्कार मजदूरों की बजाय उन्हें ही मिलना चाहिए।  अगर इन्हीं लोगों से विकास हो रहा है तो मजदूरों को अवकाष देकर देख लीजिए। 

       यदि विकास मजदूरों के बगैर नहीं हो सकता, तो विकास करने के पारिश्रमिक व पुरस्कार वितरण में संसद को उद्योगपतियों, ठेकेदारों, इंजीनियरों व मजदूरों में भेदभाव नहीं करना चाहिए था।  अगर भारत संघ की संसद इस याचिका को दाखिल होने की तारीख के बाद भी इस भेदभाव को रोकने के लिए न्यून से न्यून उपाय - ''वोटरषिप का कानून'' नहीं बनाती तो यह बात साबित हो जाएगी कि अपनी मर्जी के अच्छे कार्य के लिए बलात्कार करना सही है; संसद इस तर्क के पक्ष में है।  इससे साबित होगा कि बलातकार करने वालों को संसद एक अघोशित छूट देने को तैयार है।

            ¼xiiiयह कि उत्पादन तथा विकास में मषीनों की बढ़ती भूमिका को देखते हुए संसद को विकास के नाम पर आर्थिक क्रूरता व आर्थिक बलात्कार पसंद लोगों के दुराग्रहों के ऊपर अपनी मानवीय संवेदना को तरजीह देनी चाहिए और इस तर्क को खारिज करना चाहिए कि वोटरषिप की प्रस्तावित रकम के साथ कार्य करने की षर्त जोड़ी जाये।

            ¼xivयह कि नियमित नकद रकम मिलने पर गरीब मतदाता काम करना बंद कर देंगे, ऐसी भविश्यवाणी करने वालों को समझना चाहिए कि वे कहीं न कहीं गरीब मतदाता को बैल समझ रहे हैं, जिसे भरपेट भोजन मिल जाता है तो वह खड़ा रहना भी मुनासिब नहीं समझता है ; बैठ जाता है, ऑंख बंद कर लेता है और पागुर षुरू कर देता है। गरीबों को अवचेतन में बैल मानने वाले व डीजल-पेट्रोल जैसे ऊर्जा का  विकल्प मानने वाले लोग आदमी व जानवर में एक फर्क करना भूल जाते हैं, कि बैल के पास केवल एक पेट होता है, जबकि मानव के पास दो पेट होता है।  एक गर्दन के  नीचे, जो रोटी मांगता है और दूसरा गर्दन के ऊपर, जो इज्जत का भूखा होता है।  वोटरषिप की प्रस्तावित रकम जब समान मात्रा में सबको प्राप्त होने लगेगी तो प्रतिश्ठा का पात्र वही होगा जो समान षासकीय आय के बावजूद बेहतर आर्थिक साधन-सुविधा धारक हो।  ऐसा तभी हो सकेगा, जब वह कार्य करके अतिरिक्त धनार्जन करे।  इंसान के मस्तिश्क में मौजूद प्रतिश्ठा प्राप्त करने की यही प्यास वोटरषिप की रकम प्राप्त करने के बाद भी उसे कार्य करने को प्रेरित करेगी।  हाँ, अब अपने साथ बलात्कार्य की अनुमति वह किसी को नहीं देगा।  एक सभ्य समाज उसी को कह सकते हैं; जहां अन्य बलात्कारों के साथ-साथ आर्थिक बलातकार्य भी निंदनीय हो।

            ¼xv)   यह कि गरीब मतदाताओं के विशय में यह भविश्यवाणी भी एबी. संवेदी चेतना की स्वाभाविक उपज है।

            ¼xviयह कि आर्थिक सर्वेक्षणों व अर्थषास्त्रियों के निश्कर्शो द्वारा यह षाष्वत सत्य माना जा चुका है, कि तीन से पाँच प्रतिषत लोग हर समाज में, हर समय बेरोजगार दिखाई पड़ते ही हैं।  वस्तुत: वे प्रकृति द्वारा आपातकालीन सेवायें देने के लिए पैदा होते हैं, इन्हें बलात् काम नहीं देना चाहिए।

            ¼xviiयह कि भारत को राजनैतिक आजादी प्राप्त हुए लगभग छह दषक बीतने वाले हैं।  इस अवधि में समाज व राजनीति की मूल प्रवृत्तिायां काफी मात्रा में बदल गई हैं।  इस दौरान आम जनता की साक्षरता का स्तर ऊपर उठा है, और राजनीति को एक व्यवसाय के रूप में अपनाने की प्रवृत्तिा के कारण बहुसंख्यक राजनीतिज्ञों का चारित्रिक स्तर नीचे गिरा है।  राजनैतिक आजादी के पूर्व चल रही राजनीतिज्ञों की प्रवृत्तिायों ने लगभग 180 अंष घूम कर यू-टर्न ले लिया। जब कि राजव्यवस्था तथा अर्थव्यवस्था पारम्परिक सोंच पर ही चलती रहीं। इसका परिणाम यह हुआ कि कम आय वर्ग के नागरिकों के लाभ के नाम पर बनाया गया लगभग  पूरा सरकारी तंत्र दलाली की नियति रखने वाले राजनीतिज्ञों, सरकारी कर्मचारियों, बड़ी संख्या में अधिकारियों एवं कुछ ठेकेदारों की भेंट चढ़ गया। नीति निर्माता नीति विध्वंष में लग गये।  राजनीतिज्ञ दलाली के केन्द्रीय अभिकर्ता बन गये।  सरकारी तंत्र मेंर् कत्ताव्यनिश्ठ लोग अल्पसंख्यक हो गये, व घुट-घुट कर अपने को बस नौकरी बचाये रखने तक सीमित कर लिया। मूल्यों की राजनीति करने वाले लोगों की आवाज हल्ला-गुल्ला, षोर-षराबा, हो-हुल्लड़ की राजनीति करने वालों के बीच गुम हो गई। 

       ऐसे में कथित कल्याणकारी राज्य की भुजायें इतनी सिकुड़ती गईं कि उच्च व मध्य आय वर्ग के अलावा अन्य बहुसंख्यक नागरिक उसकी आगोष से बाहर होते गये, व दासों की अवस्था में पहुंच गये। इन लोगों को इंसान की बजाय काम करने वाला बैल या काम करने वाली जैविक मषीन माना जाने लगा।  राजनीतिज्ञों के मूल्यों में इतने बड़े परिवर्तन के बावजूद राजनीतिज्ञों के हाथ में जनकल्याण की धनराषि खर्च करने की पॉवर ऑफ अटॉर्नी पूर्ववत बनाये रखने का औचित्य अब खत्म हो गया है। अब राजनीतिज्ञों द्वारा जनता के धन को खर्च करने के अधिकार को सीमित करते हुए इस धन को उसके मूल स्वामी यानी मतदाताओं के हाथों में नकद रूप में नियमित पहुंचाना आवष्यक हो गया है।

       इस रकम के साथ काम की षर्त जोड़ने का मतलब है, किसी ऐसे मकान मालिक को काम करके पैसा कमाने, व उस पैसे को किराये के रूप में अपने ही मकान का किराया अपने किरायेदार को देने की शर्त पर अपने मकान में रहने की अनुमति देना, जिसने वह मकान किसी किरायेदार को पॉवर ऑफ अटॉर्नी की संविदा के तहत दे दिया था।  अगर वह व्यक्ति संपत्तिा का बेहतर इस्तेमाल नहीं कर पा रहा है, तो यह संविदा भंग हो सकती है।  जिस प्रकार मकान मालिक संविदा के तहत अपना मकान किसी किराएदार को देता है, उसी प्रकार मतदाता ने अपनी साझी रकम-षिक्षा, चिकित्सा, राषन, आवास, कपड़ा, यातायात, सड़क जैसे मदों पर खर्च करने का अधिकार चुनाव जीतने वाले राजनीतिज्ञों को इस आधार पर दिया था कि राजनैतिक आजादी के बाद के राजनीतिज्ञ भी स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लेने वाले राजनीतिज्ञों की तरह ही परमार्थी स्वभाव के होंगे।  किन्तु गत लगभग छह दषकों के अनुभव ने यह साबित कर दिया कि बाद के राजनीतिज्ञ ठीक विपरीत स्वभाव के निकले।

       ऐसी दषा में चुनाव जीतने वाले राजनीतिज्ञों के हाथों में मतदाताओं की साझी रकम खर्च करने का अधिकार देने वाली संविधा खत्म होनी चाहिए; व इस रकम को नियमित रुप से मतदाताओं के निजी खाते में वापस भेजा जाना चाहिए।  इस रकम के साथ काम करने की षर्त जोड़ना एक मूर्खतापूर्ण तर्क होगा, क्योंकि इससे पूरे देष के किरायेदार अपने-अपने मकान मालिकों के मकान कब्जा कर लेंगे और किराया देने के बदले मकान मालिक को झाड़ू-पोंछा लगाने की षर्त जोड़ने को प्रोत्साहित होगें, और कहेंगे कि तुम अपने मकान में तब रह सकते हो जब घर घर में झाड़ू पोचा लगाकर हमें हर महीने किराया देने का वादा करो।

       उक्त एक से सत्रह तक के तथ्यों, तर्कों व सूचनाओं के मद्देनजर यह तर्क स्वीकार नहीं किया जा सकता कि वोटरषिप की प्रस्तावित रकम पाकर गरीब मतदाता निकम्मे हो जायेंगे और अमीर लोग काम करते रहेंगे।

(घ) गरीबों को गरीबी भत्ताा मिले: सबको वोटरषिप नहीं (?)

       यह कि सरकार मतदाताओें के बीच जन्म के आधार पर आर्थिक भेदभाव करना जारी रखे, उनको वोटरषिप न दे, केवल गरीबों को पहचान कर गरीबी भत्ताा दे; यह तर्क निम्नलिखित कारणों से स्वीकार नहीं किया जा सकता-

            ¼i)    यह कि ऐसा करने से गरीब कौन है? यह पहचानने का काम कुछ सरकारी कर्मचारियों व अधिकारियों को देना पड़ेगा; जब सरकारी तंत्र के लोगों को पता चलेगा कि मेरे द्वारा निर्गत गरीबी प्रमाणपत्र के धारक को हर महीने नकद रकम मिलने वाली है।  तो वह इस प्रमाणपत्र की अघोशित नीलामी षुरू कर देगा।  इससे गरीबी भत्ताा गरीब के घर पहुचने की बजाय भ्रश्टाचारी लोगों के घर पहुंच जायेगा।

            ¼ii)    यह कि उक्त बिन्दु की संभावना केवल उसी दषा में समाप्त हो सकती है जब कोई ऐसी वैकल्पिक राजव्यवस्था कायम की जाये जिसमें सरकारी तंत्र द्वारा भ्रश्टाचार करने की संभावना बची न हो।

            ¼iii)   यह कि मतदाता को आधार बनाने पर, उसे प्राप्त होने वाली रकम को, देष के सकल घरेलू उत्पादन के औसत हिस्से में एक मतदाता के जन्मना हिस्से के प्रतिषत के रूप में तय किया जा सकता है।  इस प्रक्रिया में लोकतांत्रिक मूल्यों को अपनाया जा सकता है।  जबकि गरीबी को आधार बनाकर जो रकम किसी को दी जायेगी, वह उसका हक नहीं होगी, राज्य द्वारा दी गई भिक्षा होगी।

            ¼iv)   यह कि गरीबों को भिक्षा स्वरूप कुछ देना एक राजषाही वाली राजव्यवस्था में तो स्वीकार हो सकता था; लोकतांत्रिक राजव्यवस्था में इसे स्वीकार कर लेने से तमाम अन्य बदलाव आवष्यक हो जायेंगे।  जैसे-राजा की खोज के लिए चुनाव प्रणाली समाप्त करके  वंषानुगत प्रणाली अपनाना, मतदाताओं की नागरिक हैसियत समाप्त करके प्रजा की हैसियत अपनाना, न्यायपालिका भंग करके राजपरिवार द्वारा न्याय देने की प्रणाली अपनाना, ...... आदि।

          ¼v)    यह कि एक बहुदलीय राजव्यवस्था में दलों का विस्तार चन्दे के धन पर निर्भर करता है।  चन्दे का यह धन देने की क्षमता केवल एक सीमा से अधिक सम्पन्न लोगों में ही होती है।  इसलिये राजनैतिक दल अपनी वाणी में गरीबों के आर्थिक हितों का प्रतिनिधित्व करते है, जबकि कर्म में अमीरों के आर्थिक हितों का प्रतिनिधित्व करते हैं।  अत: बहुदलीय राजव्यवस्था में बहुसंख्यक नागरिकों को जनप्रतिनिधि तो प्राप्त होते हैं; लेकिन उनके आर्थिक हितों की वास्तविक चिन्ता करने वाले धन-प्रतिनिधि प्राप्त नहीं होते।  यदि मतदाताओं को साझा धन में से इनका नकद हिस्सा नियमित वापस मिलने लगे, तब ये बहुसंख्यक नागरिक अपनी वोटरषिप की धनराषि का एक हिस्सा नियमित अपने असली षुभचिंतक प्रतिनिधि को देते रह सकते हैं।  इस व्यवस्था से जनप्रतिनिधि की असली निश्ठा अपने मतदाताओं में बनी रह सकती है, जो आज की व्यवस्था में चंदा देने वालों की तरफ विक्षेपित हो जाती है।  वोटरषिप चूंकि लोकतंत्र की जड़ें और भी ज्यादा मजबूत करने का एक उपाय भी है।  इसलिये यह रकम केवल गरीब नागरिकों को नहीं दी जा सकती; सभी मतदाताओं को ही इसका अधिकारी मानना होगा। इस विशय में और ज्यादा जानकारी के लिए इस याचिका के अध्याय - 8. 5(घ), 15(,घ), 17(ख) का संदर्भ ग्रहण करें।

            ¼vi)   यह कि उक्त बिन्दु से स्पश्ट है कि गरीब लोग चूंकि अपने प्रतिनिधिा को चंदा नहीं दे सकते, इसलिए वास्तव में गरीबों की चिंता करने वाला कोई राजनैतिक दल व प्रभावषाली दबाव-समूह बन नहीं सकता।  ऐसे किसी दल व प्रभावषाली दबाव-समूह की अनुपस्थिति में गरीबों को राज्य के द्वारा सम्मानजनक रकम मिल नहीं सकती, यदि भिक्षा स्वरूप कुछ रकम देने का कानून बना भी दिया गया; तो वह उक्त बिन्दु (i) के कारण भ्रश्टाचार की भेंट चढ़ जायेगा।  कुछ धनराषि भी राजकोश से निकल जायेगी व गरीबी भी ज्यों की त्यों बनी रहेगी।  जबकि सभी मतदाताओं को साझा विरासत की रकम में उनको अधिकार दे देने से सभी मतदाता लोकतांत्रिक सुरक्षा कवच के घेरे में आ जायेंगे।  उनमें गरीब लोग भी होंगे।  इस व्यवस्था से गरीबी नि:संदेह खत्म हो जायेगी। 

            ¼vii)   यह कि गरीबों को भत्ताा देने की बात कहने वाले व मतदाताओं को वोटरषिप देने का विरोध करने वाले लोग या तो इतने भोले व अयोग्य हैं कि वे राजव्यवस्था व अर्थव्यवस्था के विज्ञान व उसकी जटिलता से अपरिचित हैं या आर्थिक हिंसा व आर्थिक बलात्कार पसंद करने वाले इतने क्रूर लोग हैं कि इस तर्क के सहारे गरीबों की पीठ में छूरा भी घोंपना चाहते हैं और गरीबों के आर्षीवाद से वंचित भी नहीं होना चाहते।  छल, छद्म, या अयोग्यता तथा नासमझी के पेट से पैदा होने के कारण इस तर्क को स्वीकार नहीं किया जा सकता।

            ¼viii)   यह कि गरीबों की आर्थिक मदद करना, उनको कम्बल बाँटना, उनके बच्चों की पढ़ाई का खर्च उठाना  जैसे तर्क, उपाय व नसीहतें कोई नई बात नहीं, बहुत पुरानी हैं।  अगर इनमें कोई दम होता तो ये उपाय अब तक गरीबी खत्म कर चुके होते।  इसलिए वोटरषिप के खिलाफ गरीबी भत्ताा का तर्क गरीबों के आर्थिक दर्द से पैदा नहीं हुआ है, अपितु अपने विषेशाधिकारों को बनाये रखने की चिंता से पैदा हुआ है।  ठगी की संभावना को साथ लिये रहने के कारण यह तर्क स्वीकार नहीं किया जा सकता।

            ¼ix)   यह कि गरीबों को भत्ताा देने की दवा असरविहीन व एक्सपायर साबित हो चुकी दवा है।  इसलिए जानबूझकर रोगी को नकली दवा खिलाना जानबूझकर अपराध करने जैसा है।  अपराध को रोकने के लिए बनी संसद जैसी संस्था स्वयं अपराध में भागीदार नहीं हो सकती।  इसलिए वोटरषिप के खिलाफ यह तर्क स्वीकार नहीं किया जा सकता। 

            ¼x)    यह कि इस विशय में और ज्यादा तथ्यों के लिए इस याचिका के  अध्याय 3.1  के पैरा (घ, ड.) , 3.4 (,ठ) और 6.1,2,3 का संदर्भ लें।

       उक्त (i) से (x) तक के बिन्दुओं के आधार पर वोटरषिप की निरर्थकता तथा गरीबी भत्ताा की सार्थकता को साबित नहीं किया जा सकता।

(ड़) वोटरषिप केवल गरीबों को मिले, सबको नही (?)

       यह कि - ''वोटरषिप की नियमित षासकीय आमदनी केवल गरीब मतदाताओं को मिलनी चाहिए, अरबपति लोगों को हजार-दो हजार रूपया हर महीने की वोटरषिप देने का कोई औचित्य नही है'' - यह तर्क निम्नलिखित कारणों से स्वीकार नही हो सकता -

            (i)         यह कि वोटरषिप की रकम किसी व्यक्ति को गरीब होने की हैसियत से नही प्राप्त होगी, अपितु मतदाता होने की हैसियत से प्राप्त होगी। चूंकि अरबपति लोग भी मतदाता सूची में दर्ज हैं, इसलिए वे इस रकम को प्राप्त करने से वंचित नही किये जा सकते। यह उनका निजी प्रष्न है कि इस धन को निकालने के लिए वे हर महीने ए.टी.एम. मषीनों तक जाएं, या नहीं। जिस प्रकार वोट न देने वाले अमीर लोगों को वोट के अधिकार से वंचित नही किया जाता, उसी प्रकार वोटरषिप जैसी छोटी रकम की आवष्यकता महसूस न करने वाले अमीर मतदाताओं को भी इस अधिकार से वंचित नही किया जा सकता।जब तक अमीर लोगों को वोट के अधिकार से वंचित नही किया जाता तब तक उन्हें वोटरशिप के अधिकार से भी वंचित नही किया जा सकता।

            (ii)         यह कि वोटरषिप की रकम अरबपति मतदाताओें को भी मिले, यह बात इसलिए अटपटी लगती है क्योंकि उनकी आमदनी पहले से ही बहुत विषाल है। किन्तु इस बात पर चिंतन करते समय यह बात ध्यान से उतर गई रहती है कि वोटरषिप की रकम देने के लिए सरकार टैक्स भी तो इन्हीं अरबपतियों पर लगाएगी। अगर ऐसे लाख दो लाख लोगों से हर साल दो करोड़ रूपये सरकार टैक्स के रूप में लेकर दो हजार रूपया हर महीना वोटरषिप के रूप में उन्हें वापस करे, तो इसमें बुराई क्या है?

            (iii)   यह कि सरकारी मषीनरी में व्याप्त भ्रश्टाचार को देखते हुए वोटरषिप की रकम लोगों को देने में भेदभाव नही किया जा सकता। वोटरषिप के लिए टैक्स लेने में भेदभाव किया जा सकता है।  जब पैसा अमीर मतदाताओं के पास ही है तो टैक्स भी उन्हीं को देना होगा, गरीब आदमी टैक्स कहां से देगा?

            (iv) यह कि यदि अमीर मतदाताओं को वोटरषिप की रकम देने से वंचित किया जाएगा, तो यह रकम गरीब मतदाताओं तक भी नही पहुंच पाएगी। पानी की जरूरत खेत को है, इसलिए नाली को पानी क्यों दिया जाए? क्या इस तर्क से खेत तक पानी पहुंच सकता है? अगर खेत में खड़ी फसलों की सिंचाई करनी है तो बीच में आने वाली कच्ची नाली को भी पीने भर का पानी देना होगा। और अगर यह क्षति (?) है तो इस क्षति से बचने का कोई मार्ग नही है। क्योंकि दूसरा रास्ता यही बचता है कि नौकरषाही को गरीबी का प्रमाणपत्र जारी करने का अधिकार दिया जाए। ऐसा होते ही वोटरषिप की रकम गरीबों की झोंपड़ियों में जाने के बजाय अमीरों के महलों में पहुंच जाएगी। सरकारी अधिकारियों के भ्रश्टाचार के बारे में और विस्तार से जानने के लिए इस याचिका के अध्याय तीन, पैरा - 1 (घ), 4(छ:) का संदर्भ ग्रहण करें।

      उक्त पैरा एक से चार तक के तर्कों व सूचनाओं से साबित होता है कि यदि अमीर लोगों को वोटरषिप के अधिकार से वंचित किया गया, तो वोटरषिप की गाड़ी ही पटरी से उतर जाएगी। इसलिए वोटरषिप के ईमानदार षुभचिंतकों को ऐसी कर्णप्रिय साजिष का षिकार होने से बचना चाहिए।

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