Votership


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खण्ड-तीन

4. अन्य तर्क                          

      (क) देष पर कर्ज है (?)                         

      (ख) डार्विन ने कहा था- मजबूत ही जीवित रहेगा (?) 

      (ग) असम्भव कार्य (?)                         

      (घ) मंहगाई बढ़ जायेगी (?)                      

      (ड.) वोट की खरीद-बिक्री को प्रोत्साहन मिलेगा (?)   

      (च) आरक्षण को बढ़ावा (?)                      

      (छ) भ्रश्ट लोग यह रकम भी खा जायेंगे (?)        

      (ज) दुनिया के किसी देष में नहीं है (?)            

      (झ) व्यापारियों का नुकसान होगा (?)              

      (ञा) काम करने को मजदूर नहीं मिलेंगे (?)        

      (ट) केवल वोट देने वालों को मिले (?)             

      (ठ) न्यूनतम जरूरतों की गारंटी मिले, वोटरषिप नहीं (?)

      (ड) वोटरषिप नहीं, विकेन्द्रित अर्थव्यवस्था अपनाई जाये (?)    

      (ढ.) अर्थषास्त्री वोटरषिप के खिलाफ (?)            

      (ण) आर्थिक आंकड़े महज धोखा (जग्लरी) है (?)                    

      (त) आदिवासी क्षेत्रों के लोग वोटरषिप की रकम

          ए.टी.एम. मषीनों से निकाल ही नही पायेंगे (?)               

      (थ) पहले वोटरषिप पर सेमिनार करके बुध्दिजीवी एकमत  हों (?)       

      (द) वोटरषिप के लिए चुनावों से जनादेष मांगा जाए (?)                   

      (ध) समस्याओं का समाधान नही, दबाव बनाने की योजना (?)

 

4. अन्य तर्क -

(क) देष पर कर्ज है (?)

       देष पर कर्ज है, इसलिये मतदाताओं को वोटरषिप का अधिकार नहीं दिया जा सकता- यह तर्क  निम्नलिखित आधारों पर विचारणीय नहीं हो सकता-

       (i)     यह कि यह तर्क करने वाला व्यक्ति यह बात छिपा जाता है कि भारत में पैदा होने वाला हर बच्चा जन्म लेते ही प्रति व्यक्ति ओेसत आय का स्वामी भी होता है।  कर्ज बताने लेकिन आमदनी छिपाने के कारण यह तर्क नहीं एक साजिष है।  इसलिए वोटरषिप के खिलाफ इस तर्क पर विचार नहीं किया जा सकता।

            (ii)    यह कि हर बच्चे के हिस्से की औसत आय यदि सरकार उसे वापस कर दे, तो वोटरषिप की केवल 3-4 महीने की रकम से ही देष का सारा कर्ज उतर जायेगा।  किन्तु देष पर कर्ज का तर्क केवल गरीब मतदाताओं के खिलाफ इस्तेमाल किया जाता है।  जब गरीब मतदाताओं के हाथ से पैसा ही छीन लिया गया है तो देष का कर्ज वापस करने की जिम्मेदारी उनकी बनती ही नहीं।  इसलिए देष के कर्ज को वोटरषिप के खिलाफ एक अवरोध के रूप में स्वीकार नहीं किया जा सकता।

            (iii)   यह कि जब किसी घर-परिवार पर कर्ज हो जाता है, तो उसको उतारने के लिए परिवार के सभी सदस्य अपने विलासिता के खर्चों में कटौती कर देते हैं। जैसा कि सरकार ने एकतरफा देष के असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों को कटौती के लिए बाध्य कर रखा है, किन्तु सरकार देष के सम्पन्न नागरिकों के ऊपर देष का कर्ज उतारने के लिए खर्चों में कटौती करने का कोई दबाव नहीं बना रही है। देष पर कर्ज है, फिर भी पांच सितारा होटलों की ऐय्याषी है। देष पर कर्ज है फिर भी हवाई यातायात में ईंधन की बेइंतहां बर्बादी है। देष पर कर्ज है, फिर भी कार में एक आदमी अकेले चल कर इंधन बर्बाद कर रहा है, ट्रैफिक की समस्या खड़ी कर रहा है और फिर लोगों की छत की कीमत पर फ्लाईओवर पर फ्लाईओवर बनाने में अरबों रूपये बर्बाद किये जा रहे हैं।  इन साक्ष्यों को देखते हुए सिध्द है कि देष का कर्ज वापस करने की सरकार की मंषा  ही नहीं है, इस कर्ज के ब्याज में सरकार चलाने वाले लोगों को दलाली मिलने की संभावना हो सकती है।  दूसरा कारण यह है कि सरकार के नाम से चल रही संस्था सरकार है ही नहीं, क्योंकि वह संप्रभु नहीं है; देष के अमीर नागरिकों पर उसका वष नहीं है।  इस सच्चाई के मद्देनजर देष पर कर्ज को न उतारने का आरोप या तो सरकार पर जाता है या औसत राश्ट्रीय आय से अधिक खर्च करनs वाले देष के अमीर नागरिकों पर।  इसलिए इस तर्क के आधार पर गरीब मतदाताओं से वोटरषिप का प्रस्तावित अधिकार छीन कर उन्हें अर्थदण्ड नहीं दिया जा सकता।  अमीर नागरिकों की गलती की सजा गरीब नागरिकाें को देना अंधेर नगरी जैसी राजव्यवस्था सिध्द कर देगी और ऐसी राजव्यवस्था के विरूध्द विद्रोह हर नागरिक कार् कत्ताव्य बन जायेगा।

        उक्त एक से तीन के आधाार पर साबित होता है कि वोटरषिप के खिलाफ देष पर कर्ज वाला तर्क एक ऐसे अज्ञानी का तर्क है जो देष की अर्थव्यवस्था से पूरी तरह अनभिज्ञ है; इसलिए यह तर्क स्वीकार्य नहीं हो सकता।

 (ख) डार्विन ने कहा था- मजबूत ही जीवित रहेगा (?)

       यह कि डार्विन नाम के वैज्ञानिक द्वारा प्रतिपादित 'सर्वाइवल ऑफ द फिटेस्ट' यानी 'सर्वश्रेश्ठ का चयन' नामक प्रसिध्द सिध्दांत को वोटरषिप के प्रस्ताव के खिलाफ निम्नलिखित कारणों से स्वीकार नहीं किया जा सकता-

            (i)    यह कि उक्त सिध्दांत को महान वैज्ञानिक आइंस्टीन ने सापेक्षता का सिध्दांत प्रतिपादित करके चूंकि काट दिया था, इसलिये डार्विन का सिध्दांत उनकी परिकल्पना बनकर रह गया है। इसे वैज्ञानिक सूत्र मानकर चलना अज्ञानी होने का सुबूत है।  ऐसी अज्ञानता भरे तर्क को वोटरषिप के खिलाफ स्वीकार नहीं किया जा सकता।इस विशय में और ज्यादा जानकारी के लिए इसी अध्याय के अगले पैरा, अध्याय-1 (viii) का अवलोकन करें।

            (ii)    यह कि यदि डार्विन का सिध्दांत सही होता और आदमी पर भी लागू होता, तो मानव समाज सह-अस्तित्व की सभ्यता को आदर्ष मानकर चलने वाला समाज न होता।  कारण यह है कि तब मानव प्रजाति में अंत:संघर्श हो जाता।  तब सबसे पहले सबसे कमजोर आदमी अपने से मजबूत आदमी द्वारा मार दिया जाता।  जो मारता, उसे उससे भी मजबूत आदमी मार देता।  अन्त में केवल एक सर्वषक्तिमान आदमी धरती पर बचता; षेश सब मर गये रहते।  चूंकि धरती पर एक-दो आदमी नहीं, 6 अरब आदमी जीवित दिखाई दे रहे हैं।  इसलिए डार्विन का सिध्दांत प्रत्यक्ष तौर पर गलत है।  एक गलत सिध्दांत को वोटरषिप के प्रस्ताव के खिलाफ स्वीकार नहीं किया जा सकता।

            (iii)   यह कि मानव के अनेक गुण हैं।  कुछ गुणों में कोई एक आदमी मजबूत है, तो वही दूसरे गुण में कमजोर होता हैं।  जो कमजोर दिखाई्र देता है, उसकी छानबीन किया जाये, तो वही किसी अन्य मामले में बहुत मजबूत है।  कोई एक आदमी सभी गुणों में मजबूत नहीं हो सकता और कोई आदमी सभी गुणों में कमजोर नहीं हो सकता।  इसलिए डार्विन का सिध्दांत ज्यादा से ज्यादा जानवरों पर लागू तो किया जा सकता है। इंसान पर इसे लागू करना या तो अज्ञानता का लक्षण है, या स्वार्थ की वकालत है, या साजिष है, या बलात्कारी अर्थव्यवस्था तथा बलात्कारी राजव्यवस्था की रक्षा का आग्रह है।  यह वोटरषिप के खिलाफ कोई जायज तर्क नहीं है।

            (iv)   यह कि कमजोर मानकर जिन गरीब नागरिकों को  डार्विन के सिध्दांत की आड़ में आर्थिक तंगी के जहर से उन्हें मार देने की वकालत की जाती है; वे गरीब नागरिक वस्तुत: कमजोर नहीं है।  उन्हें राज्य के निर्माताओं ने आष्वासन दिया था, कि वे अपनी नैसर्गिक जीवन पध्दति छोड़ कर चोरी-डकैती -लूट-मार-हत्या जैसे कार्य करना बन्द कर दें।  इन कार्यों को राज्य निर्माताओं व धर्म निर्माताओं ने अलग-अलग नाम दिया।  राज्य ने इसे अपराध कहा, धर्म ने इसे अनैतिकता या अधर्म कहा।  राज्य ने इन लोगों को इनकी आवष्यकता पूर्ण करने का आष्वासन दिया, और कहा कि पुलिस और सेना हम आपकी सुरक्षा के लिए बना रहे हैं, उन्होनें आष्वासन दिया कि यदि आपको कोई षिकायत हो तो इनकी षक्ति को अपने सुरक्षा कवच के रूप में उपयोग करो।  राज्य अपने इस आष्वासन से स्वयं मुकर गया, और धर्म गुरूओं ने-'बुरा मत देखो (होने दो)' के मार्ग का वरण कर लिया।  जिन्हें गरीब कहा जा रहा है, वे किर्ंकत्ताव्यविमूढ़ हैं, व राज्य द्वारा ठगे गये हैं।  ठग लोग तो बड़े-बड़े विद्वानों को भी ठग लेते हैं, तो इसका यह मतलब नहीं समझना चाहिए कि विद्वान को कमजोर मान लें।  ठगी की अवस्था देर तक नहीं रहती। ठगी का भान होते ही कमजोर दिखने वाला गरीब नागरिक संगठित हो जाता है, और उससे मजबूत कोई दिखाई ही नहीं देता।  इतिहास में ऐसी घटनाएं घट चुकी हैं।  इसलिए गरीब नागरिकों को कमजोर मानकर उन्हें आर्थिक तंगी से मारने की सोंच एक न्यायप्रिय समाज व न्यायप्रिय संसद स्वीकार नहीं कर सकती। 

       उक्त बिन्दु (i) से (iv) तक के तथ्यों के आधार पर वोटरषिप के खिलाफ डार्विन सिध्दांत खारिज करने योग्य है।

(ग) असम्भव कार्य (?)

       यह कि वोटरषिप के प्रस्ताव को असंभव कहकर इसलिये खारिज नहीं किया जा सकता, क्योंकि-

            (i)    यह कि असंभव कहने वाले व्यक्ति की दो नियति हो सकती है।  पहला तो यह कि उसने मामले का बिना पूरा अध्ययन किये, अपरिपक्व टिप्पड़ी किया हो।  दूसरा यह कि इस हथियार को उसने वोटरषिप की (जनविरोध की सजा से सुरक्षित) खिलाफत करने के लिए जानबूझकर अपनाया हो।  दोनों ही स्थितियों में असंभावना के तर्क को वोटरषिप के प्रस्ताव को खारिज करने के लिए पर्याप्त कारण नहीं माना जा सकता।

            (ii)    यह कि उक्त दोनों प्रकार के लोगों के साथ समान व्यवहार नहीं किया जा सकता।  जो व्यक्ति कम अध्ययन के कारण वोटरषिप के प्रस्ताव को असंभव कह रहा होगा, वह इस आंदोलन की उस षाखा में जरूर कार्य कर रहा होगा, जो वोटरषिप के नाम पर प्रति व्यक्ति औसत घरलू उत्पाद की आधी रकम की बजाय चौथाई रकम को मतदाता का अधिकार बनाने की वकालत में लगा होगा।  ऐसा आदमी आधी रकम को असंभव लेकिन चौथाई रकम को संभव मानकर संघर्श कर रहा होगा।  अगर ऐसा वह कर रहा है तो वोटरषिप का मूल प्रस्ताव स्वयं वह खारिज नहीं कर रहा है। 

            (iii)   यह कि यदि कोई व्यक्ति, कोई संगठन, या कोई प्रदेष सरकार व विधायिका, या किसी देष की सरकार व उस देष की विधायिका सकल घरलू उत्पाद में मतदाता के जन्मना अधिकार के रूप में उसका हिस्सा 25 प्रतिषत से भी कम आंकने का प्रयास करे तो इससे यह नतीजा निकालना चाहिए कि इस व्यक्ति, संगठन, सरकार या विधायिका को यह प्रेरणा अपनी निजी महत्वाकांक्षा से मिली है, मतदाताओं पर होता हुआ आर्थिक बलात्कार देखकर नहीं।  यह महत्वाकांक्षा कई प्रकार की हो सकती है।  जैसे- अपनी सरकार बनाये रखकर दलाली खाते रहने की महत्वाकांक्षा हो सकती है। संसद या किसी भी विधायिका में अपनी सदस्यता सुरक्षित रखकर सत्ताा-सुख भोगने की महत्वाकांक्षा हो सकती है।  ऐसी बात करने वाले किसी संगठन को आर्थिक बलात्कार करने वालों से मिलने वाले मोटी रकम व इन्हीं लोगों द्वारा संचालित मीडिया के कुछ संस्थानों द्वारा प्राप्त होने वाले प्रचार-प्रसार की महत्वाकांक्षा हो सकती है। विपक्षी दल द्वारा सत्तााधारी दल को सत्ताा च्युत करके स्वयं सत्ताा प्राप्त करने की महत्वाकांक्षा हो सकती है। थोड़ी सी रकम की आवाज उठाकर अपने को ज्यादा व्यावहारिक साबित करके किसी व्यक्ति की निजी यषेश्णा व धनेश्णा की पूर्ति की महत्वाकांक्षा हो सकती है। मतदाता को प्राप्त होने वाली प्रस्तावित रकम को कम से कमतर करने का प्रयास इस न्यायिक कार्यवाही को निश्फल कर देने की साजिष हो सकती है । क्योंकि इससे जनविरोध का दण्ड भी नहीं मिलेगा और इतनी कम रकम होगी कि उसे प्राप्त करने में मतदाताओं का उत्साह भी ठंडा पड़ जाएगा।  जो थोड़ी सी रकम प्राप्त होगी, वह बड़ी आसानी से सरकारी तंत्र के भ्रश्टाचार की भेंट चढ़ जाएगी, जैसे कच्ची नाली से थोड़ा पानी खेत सींचने के लिए भेजा जाता है तो उतना पानी नाली ही पी जाती है, खेत को कुछ मिलता ही नहीं।  अत: कम रकम को व्यावहारिक मानकर यदि वोटरषिप का कानून बनाया भी जाता है तो उसका हश्र वही होगा जो कच्ची नाली में बहने वाले कम मात्रा के पानी का होता है।  इसमें मतदाताओं की दासतां खत्म नहीं होगी, उन पर आर्थिक जुल्म जारी रहेंगे और वोटरषिप का मूल मक्सद निश्फल हो जायेगा।  वोटरषिप का मूल मक्सद निश्फल करने की साजिष होने के नाते वोटरषिप के नाम पर कम से कमतर रकम मतदाताओं को देने का प्रयास व ऐसा तर्क एक खारिज किये जाने योग्य तर्क है व ऐसा प्रयास असहयोग किये जाने योग्य प्रयास है।

            (iv)   यह कि भारत संघ को जब राजनैतिक आजादी भी प्राप्त नहीं थी तो षासन करने वाले अंग्रेज यहाँ के लोगों को षासन के व पैसे के विवेकपूर्ण उपयोग करने के योग्य नहीं समझते थे।  इसलिए उन्होंने भारत पर षासन करके भारत पर एहसान किया हुआ समझा।  इसीलिए उन्होंने जनता को षिक्षा-स्वास्थ्य-रोटी-कपड़ा-मकान देने का आष्वासन दिया, सीधे पैसे देने का आष्वासन नहीं दिया।  जबकि ये सारी चीजें पैसे से मिलती है।  कान को सीधे हाथ से न पकड़ कर उल्टे हाथ से पकड़ने की उनकी उल्टी सोंच इस मान्यता पर आधारित थी कि भारत के लोग वैसे बच्चे की तरह हैं कि उनके हाथ में पैसा जायेगा तो उन्हें बहला-फुसला कर कोई हथिया लेगा।  इसलिए भारत के हिस्से का पैसा ब्रिटेन में स्थित-'भारत सरकार' के हाथों ही खर्च किया जाना चाहिए।  राजनैतिक आजादी मिलने पर भारत के प्रथम प्रधानमंत्री श्री जवाहरलाल नेहरू ने इस तर्क को खारिज कर दिया व मतदाताओं का पैसा लंदन की बजाय सीधे दिल्ली से खर्च करने लगे।  नेहरू ने व संविधान सभा के माध्यम से भीमराव अम्बेडकर ने ऐसा संविधान बनाया कि मतदाताओं का पैसा खर्च करने का अधिकार दिल्ली से भी आगे प्रदेष सरकारों को भी दे दिया।  इसके बाद नेहरू के षासन काल के अंतिम दौर में तथा षास्त्री जी के षासन के दौरान विकास का पैसा खर्च करने का अधिकार जनपद स्तर तक पहुंचा, उसके बाद ब्लाकों से होता हुआ गॉवों तक पहुंचा। अब वोटरषिप का प्रस्ताव अंतिम कदम और बढ़ाने को कह रहा है।  इस प्रस्ताव से पैसा घर-घर अपने मूल स्वामी के पास पहुंच जाएगा।  इतिहास की प्रवृत्तिायों के साथ कदम से कदम मिलाकर चलने वाले वोटरषिप के इस प्रस्ताव को असंभव कहने वाले इतिहास का ज्ञान कम रखते हैं। इसलिए उनके इस तर्क के आधार पर वोटरषिप का प्रस्ताव असंभव कहकर खारिज नहीं किया जा सकता।

            (v) यह कि यह तर्क एबी. व ओ. संवेदी चेतना के मध्यवर्तियों की स्वाभाविक सोंच है।  अगर वोटरषिप का मामला परवान चढ़ता देखेंगे तो ये लोग तरल समुदाय की भूमिका में इस न्यायिक कार्यवाही के साथ खड़े हो जाएंगे।  असंभावना का उनका तर्क इस न्यायिक कार्यवाही में अपनी ऊर्जा को खर्च करने से बचने का प्रयास भर है।

          (vi)   वोटरषिप के प्रस्ताव को लागू हो पाने की संभावना-असंभावना के विशय में और ज्यादा जानकारी के लिए याचिका की प्रार्थना के कार्यान्वयन से संबंधित अध्याय - 9 का संदर्भ लें। 

            (vii)   यह कि वोटरषिप को असंभव कहने वाले कुछ लोग ईमानदार भी हो सकते हैं, जिनको यह बात समझ पाने की जन्मजात योग्यता ही नहीं है।  कुछ लोगों को पान की दुकान खोलना भी असंभव लगता है, कुछ लोग बड़ी-बड़ी कम्पनी खड़ी कर देते हैं।  वोटरषिप का प्रस्ताव कार्यान्वित करने के लिए इन लोगों के अलावा अन्य योग्य लोग मौजूद हैं। इसलिए इसे असंभव नहीं कहा जा सकता। 

       उक्त (i) से (vii) तक के बिन्दु साबित करते हैं कि वोटरषिप के प्रस्ताव का कार्यान्वयन असंभव मानकर इस प्रस्ताव को खारिज नहीं किया जा सकता।

(घ) मंहगाई बढ़ जायेगी (?)

       यह कि जन्माधारित आर्थिक भेदभाव पर अंकुष लगाने के उद्देष्य से यदि सभी नागरिकों को वोटरषिप का अधिकार दिया गया तो महंगाई बढ़ जायेगी और वोटरषिप से लाभ नहीं होगा; इस भविश्यवाणी को निम्नलिखित आधारों पर सत्य नहीं माना जा सकता-

            (i)    यह कि महंगाई तभी बढ़ सकती है, जब अर्थव्यवस्था में मुद्रा की मात्रा स्थिर रहे, किन्तु उत्पादन गिर जाये।  या उत्पादन की मात्रा स्थिर रहे, मुद्रा की मात्रा बढ़ जाये।  रोजगार पर पड़ने वाले असर से संबंधित इस याचिका के अध्याय - 8.17 का संदर्भ ग्रहण करते हुए देखें तो स्पश्ट पता चलता है कि वोटरषिप की रकम 60 प्रतिषत गरीब मतदाताओं की वास्तविक माँग को प्रभावी माँग में बदल देगी।  यानी भारत संघ की बाजार में लगभग 37 करोड़ नये ग्राहक खरीदारी के लिये आ जायेंगे।  इनकी आवष्यकतायें पूरी करने के लिए बड़ी मात्रा में वस्तुओं व सेवाओं की पैदावार करनी होगी।  चूंकि उत्पादन के लिए श्रम षक्ति मौजूद है, पूंजी बाजार में मंदी है, इसलिए बड़ी संख्या में उत्पादन केंद्रों की स्थापना संभव है।  बाजार में नई मांग आने पर उत्पादन की नई संभावनायें खुली हैं, इसलिए महंगाई बढ़ने की भविश्यवाणी वही कर सकता है जो व्यवस्थागत परिवर्तन मात्र के प्रति डरपोक हो, या आर्थिक हिंसा का प्रबल हिमायती हो। ऐसा भी हो सकता है कि जन विरोध की सजा से बचने के लिये ऐसा व्यक्ति महंगाई को वोटरषिप की खिलाफत करने के लिए एक हथियार के रूप मे इस्तेमाल करता हो।  या फिर महंगाई का सवाल मामले का बिना पर्याप्त अध्ययन के उसके मुंह से अनायास निकली टिप्पणी हो।  इसलिये यह भविश्यवाणी सत्य मानकर वोटरषिप का प्रस्ताव खारिज नहीं किया जा सकता। 

            (ii)    यह कि उक्त विष्लेशण से स्पश्ट है कि वोटरषिप से बाजार में प्रभावी मांग बढ़ जायेगी और  श्रमषक्ति व पूंजी की सुलभता होने पर उत्पादन व रोजगार का स्तर निष्चित रूप से ऊपर उठ जायेगा।  इसलिये लोगों को वोटरषिप प्राप्त होने पर महंगाई बढ़ने की बजाय महंगाई और नीचे गिर जायेगी।  यहां तक कि नये उत्पादों व नयी सेवाओं की खरीद-बिक्री को संभव बनाने के लिये बड़ी मात्रा में मुद्रा निर्गमन भी करना पड़ेगा।  इसलिये वोटरषिप का परिणाम महंगाई बढ़ने के विपरीत होगा और इसीलिये वोटरषिप के खिलाफ महंगाई बढ़ने की भविश्यवाणी को स्वीकार करने का कोई औचित्य नहीं है।

            (iii)   यह कि गरीब नागरिकों पर तो महंगाई बढ़ने का असर हो ही नहीं सकता, क्योंकि जितनी मात्रा में मुद्रा निर्गमन होने से मुद्रा का मूल्य गिरेगा, उससे बड़ी मात्रा में गरीब लोगों को वोटरषिप के नाम से अतिरिक्त मुद्रा मिल जायेगी।  इसलिए वोटरषिप से महंगाई बढ़ने व गरीब मतदाताओं पर उसका विपरीत असर होने का तर्क स्वीकार नहीं किया जा सकता।  इस विशय में विस्तार से जानने के लिए इस याचिका के अर्थषास्त्रीय स्पश्टीकरण से संबंधित अध्याय - 7(4,5) का संदर्भ लें।

            (iv)   यह कि वोटरषिप की रकम के साथ महंगाई भत्ताा जोड़कर देने से गरीब मतदाताओं पर महंगाई बढ़ने का प्रभाव बड़ी आसानी से रोका जा सकता है।  इस भत्तो से आर्थिक न्याय की कार्यवाही संपादित हो सकेगी। क्योंकि आज तो महंगाई सभी के लिए बढ़ती है, जबकि महंगाई भत्ताा केवल संगठित व सरकारी क्षेत्र में नौकरी करने वालों को ही मिलता है।  चूंकि वोटरषिप की रकम के साथ महंगाई भत्तो को भी बड़ी आसानी से भेजा जा सकता है, इसलिए गरीबों पर मंहगाई का विपरीत असर पड़ने की भविश्यवाणी बिना सिर-पैर की बात है और इसीलिए वोटरषिप के खिलाफ यह तर्क स्वीकार नही किया जा सकता है।

       उक्त (i) से (iv) तक के विष्लेशण के आधार पर वोटरषिप के खिलाफ मंहगाई वृध्दि की भविश्यवाणी को सच नही माना जा सकता यदि थोड़ा बहुत मंहगाई बढ़ती भी है, तो इसके दुष्परिणामोें को मंहगाई भत्ताा देकर खत्म किया जा सकता है।

(ड.) वोट की खरीद-बिक्री को प्रोत्साहन मिलेगा (?)

       यह कि आर्थिक लोकतंत्र के एक साधन के रूप में वोटरषिप के प्रस्ताव को निम्नलिखित आधारों पर वोट की खरीद-बिक्री नही कहा जा सकता-

            (i)    यह कि वोटरषिप की रकम के कारण लोकतंत्र में लोगों का विष्वास और ज्यादा मजबूत हो जायेगा। इसलिये वोटरषिप प्रस्ताव पर लोकतंत्र कमजोर करने का आरोप गलत है, जैसा कि 'वोट की खरीद-बिक्री' जैसे षब्द से ध्वनित होता है।

            (ii)    यह कि यदि सकल घरेलू उत्पाद बढ़ जायेगा तो वोटरषिप की रकम भी बढ़ जायेगी । और यदि उत्पादन घट जायेगा तो वोटरषिप की रकम भी घट जायेगी । इससे आर्थिक राश्ट्रीयता मजबूत होगी। लोग अपने ही लिये नही, राश्ट्र के लिए उत्पादन करने के लिए प्रेरित होंगे। लोग सकल घरेलू उत्पाद बढ़ाने के लिए एकजुट हो जायेंगे, क्योकि बढ़ी रकम में अब उनको अपना हिस्सा भी दिखाई पड़ने लगेगा। चूंकि वोटरषिप की रकम घरेलू उत्पाद से सम्बन्धित है, लड़ने वाले प्रत्यासी की निजी आय से सम्बध्द नही है। इसलिए वोटरषिप के प्रस्ताव पर वोट की खरीद-बिक्री का आरोप लगाना बेतुका है।

            (iii)   यह कि चुनाव आयोग के आंकड़ो से स्पश्ट नतीजा निकलता है कि मतदान करने में लोगों की रुचि गिरती जा रही है। मतदान में भाग लेने वालों की संख्या आमतौर पर 45-50 प्रतिषत ही रहती है, यानी आधा से कम लोग मतदान में उत्साह दिखाते हैं। जब वोट देने का महत्व इतना हो जायेगा, कि उससे कुछ रकम नियमित सरकार द्वारा मिलने लग जायेगी तो वोट देने वालों का प्रतिषत 90-95 से कम तो होगा ही नही। अत: वोट की खरीद-बिक्री का आरोप गलत है। लोकतंत्र को असली खतरा मतदान में भाग लेने की रुचि को घटते जाने की प्रवृति  से है, जो वोटरषिप से 'यू टर्न' ले लेगी। इससे लोकतंत्र का और भी ज्यादा विस्तार हो जायेग। अब लोकतंत्र की रक्षा करना केवल सरकार का ही काम नही रह जाएगा, जन-जन लोकतंत्र का सजग प्रहरी बन जायेगा।

            (iv)   यह कि किसी भी चीज की खरीद-बिक्री से राश्ट्रहित होता हो, (और उस राश्ट्र ने खरीद-बिक्री वाली बाजार व्यवस्था को पहले से स्वीकार कर रखा हो) तो मात्र खरीद-बिक्री कोई बुरी चीज है ही नही। सवाल इसके परिणाम पर ही उठाया जा सकता है। वोटरषिप का परिणाम यह होगा कि अब मतदाता इतना जागरुक हो जाएगा, कि षराब की एक थैली पर, या 100 रुपये की नोट पर या एक साड़ी पर, या ऐसे ही तुच्छ लालच पर अपनी वोट किसी ऐसे आदमी को नही देगा, जिसको देने से उसको सालों-साल तक मिलने वाली वोटरषिप की नियमित रकम से हाथ धोना पड़े। इतना नासमझ तो जानवर भी नही होता। मतदाता को जानवर से बदतर मानना मानव जाति व उसकी महत्ताा को न समझ पाने का सुबूत है। यानी वास्तविकता यह है कि वोटरषिप के कारण मतों की वर्ममान में चल रही खरीद-बिक्री रुक जायेगी, व अधिकांष लोगों के मतदान बूथ पर पहुंच जाने के कारण उनके नाम से फर्जी मतदान की संभावना भी समाप्त हो जायेगी। इन्हीं अनुपस्थित मतदाताओें की मतों को फर्जी ढ़ंग से हड़पने के लिए चल रही मतदान केन्द्रों पर गुण्डागीरी भी खत्म हो जायेगी क्योंकि अब तो फर्जी मतदान की संभावना ही समाप्त हो जाएगी।

            (v)    लोकतंत्र व संविधान पर पड़ने वाले प्रभावों के विशय में और विस्तार से जानने के लिए इस याचिका के अध्याय - 8(15,16) का संदर्भ ग्रहण करें।

       उक्त (i) से (v) तक के तर्को, विष्लेशणों व तथ्यों के मद्देनजर वोटरषिप प्रस्ताव के खिलाफ मतों की खरीद-बिक्री का तर्क स्वीकार नही किया जा सकता ।

(च) आरक्षण को बढ़ावा (?)

       आरक्षण को बढ़ावा देने के आधार पर वोटरषिप का महत्व निम्नलिखित कारणों से खारिज नही किया जा सकता-

            (i)    यह कि मतदाताओं को, विषेशकर गरीब मतदाताओं को विकास में उनकी प्रमुख भागीदारी आवष्यक है और वोटरषिप की रकम इनके ऊपर किये गये एहसान के रूप में कदापि नही माना जा सकता। इसलिए आरक्षण को बढ़ावा देने का आरोप वोटरषिप पर लागू ही नही होता।

            (ii)    यह कि अगर मतदाताओं को राश्ट्रीय उत्ताराधिकार में मिलने वाली रकम को आर्थिक आरक्षण माना जायेगा, तो पिता के उत्ताराधिकार में बच्चों को मिलने वाली सम्पति को भी आर्थिक आरक्षण का पारम्परिक उदाहरण मानना ही होगा। जो समाज रक्त पिता के उत्ताराधिकार को कानूनी मानता हो, उसे नैतिक अधिकार ही नही है कि वह राश्ट्रपिता के उत्ताराधिकार पर अंगुली उठाये। इसलिए वोटरषिप के प्रस्ताव के खिलाफ आरक्षण को बढ़ावा देने वाला तर्क बिना सोंचे-समझे की गई एक अनायास टिप्पणी भर है; यह कोई तर्क है ही नही, जिसे स्वीकार करने पर विचार भी किया जा सके।

            (iii)      यह कि आरक्षण को बढ़ावा देने का आरोप तब स्वीकार्य हो सकता था, जब भारतीय समाज द्वारा इसमें विष्वास न करने की कोई परम्परा होती। जबकि वास्तविकता यह है, कि भारत के षास्त्रों का आदर्ष भले ही कर्म आधारित वर्ण व्यवस्था की स्थापना करना रहा हो, भारत का समाज तो जन्म आधारित वर्ण व्यवस्था पर ही चलता है। जब कुछ लोगों को जन्म के आधार पर सम्मान का आरक्षण है, जब कुछ लोगों को जन्म के आधार पर अपमान का आरक्षण्ा है, जब अमीर के बेटे को जन्म के आधार पर अमीरी का आरक्षण है, जब गरीब के बेटे को जन्म के आधार पर गरीबी आरक्षित है तो फिर मतदाताओं के लिए जन्म के आधार पर वोटरषिप का अधिकार देने में नया कुछ भी नहीं है, जिसे आरक्षण को बढ़ावा देने का बेतुका आरोप लगाकर खारिज करने का प्रयास किया जाये।

            (iv) यह कि आरक्षण को बढ़ावा देने के आधार पर वोटरषिप के प्रस्ताव को असंवैधानिक भी सिध्द नहीं किया जा सकता।  कारण यह है कि संविधान के अनु. 19 340 भारत के सामाजिक रूप से पिछड़े जिन एस.सी./एस.टी. समुदायों के लिये आरक्षण का प्रावधान करते हैं, उसके पीछे मूल मंषा इन समुदायों को भी विकास की मूल धारा में षामिल करना है; जो नौकरियों मात्र में आरक्षण के प्रावधान से पूरा नहीं हुआ।  इन समुदायों की जनसंख्या लगभग 16 करोड़ है। और इनकी वृध्दि दर 5.5 प्रतिषत है।  यानी हर साल एस.सी./एस.टी. समुदाय में 88 लाख लोग नये जुड़ जाते हैं।  जबकि सरकारी क्षेत्र में नौकरियों की कुल संख्या 150 लाख है एवं संगठित क्षेत्र में 80 लाख है।  अगर निजी क्षेत्र व सरकारी क्षेत्र दोनों मिला दिये जायें तो नौकरियों की संख्या 230 लाख है, इसमें यदि 15 प्रतिषत जगहें एस.सी./एस.टी. समुदाय के लोगों द्वारा भरी जायेंगी तो कुल 34.5 लाख लोगों को नौकरी प्राप्त हो सकती है।  यह संख्या हर साल नये पैदा होने वाले लोगों की तुलना में 60.79 प्रतिषत कम है।  यानी हर साल एस.सी./एस.टी. समुदाय में 53.50 लाख नये लोग पैदा हो रहे हैं, जिनको नौकरी न मिलने का आरक्षण है।  इस संख्या में इन समुदायों की पूर्ववत जनसंख्या 16 करोड़ पहले से विराजमान है, जिसे नौकरी नहीं मिली। ये 16करोड़ वे लोग हैं, जो नौकरी न पाने के लिए आरक्षित हैं।  आरक्षण की सुविधा प्राप्त परिवारों की संख्या अगर देखें तो ज्यादा से ज्यादा ऐसे कुल 70 लाख परिवार हैं, जिन्हें आरक्षण मिल चुका है, वे पढ़-लिख लिये हैं, सम्पन्न हो गये हैं।  इसलिए एस.सी./एस.टी.समुदाय के इन अमीर परिवारों के बच्चे व इस समुदाय के गरीब परिवार के बच्चे जब एक ही प्रतियोगिता परीक्षा में बैठेंगे, तो पहले से स्वीकार नतीजा है कि अमीर परिवारों के बच्चे ही परीक्षा में चयनित होंगे, अपवादों के अलावा एस.सी./एस.टी.समुदाय के गरीब परिवारों के बच्चे नौकरी पाने से असफल रह जायेंगे।  इन असफल लोगों व एस.सी./एस.टी. समुदाय के पहले से नौकरी विहीन लोगों को मूलधारा में षामिल करने के लिए वोटरषिप का प्रस्ताव एक प्रभावषाली उपाय होगा। इसलिए यह प्रस्ताव भारत के संविधान के अनु - 340 की भावना के अनुरूप ही है और उसका ही सहायक है। अत: इसे आरक्षण का बढ़ावा कहकर असंवैधानिक सिध्द नहीं किया जा सकता।

       उक्त (i) से (iv) तक के तर्कों, सूचनाओं व विष्लेशणों के आधार पर आरक्षण को बढ़ावा देने के आरोप के आधार पर वोटरषिप का प्रस्ताव असंवैधानिक व अनुचित नहीं माना जा सकता। 

(छ) भ्रश्ट लोग यह रकम भी खा जायेंगे (?)

       यह कि वोटरषिप की रकम को भ्रश्ट व दलाल लोग खा जायेंगे। इसलिये वोटरषिप का अधिकार देने से भी जरूरतमंद लोगों तक यह पैसा नहीं पहुँच पायेगा; यह आषंका निम्नलिखित कारणों से निराधार है-

            (i)    यह कि उक्त आरोप तभी संभावित था, जब ए.टी.एम.यानी ऑटोमैटिक टेलर मषीन का आविश्कार न हुआ होता।  इस मषीन का इस्तेमाल अभी तक अमीर लोग करते रहे हैं।  इस मषीन का उपयोग अब आर्थिक लोकतंत्र का विकास करने में किया जा सकता है।  गाँव-गाँव, मोहल्ले-मोहल्ले, पेट्रोल पम्पों, रेलवे स्टेषनों, डाकघरों, स्कूलों, बैंकों में ए.टी.एम. केन्द्र खोले जा सकते हैं। इस मषीन में मतदाता अपना कैष कार्ड डाल कर बिना किसी बिचौलिये के पैसे की निकासी कर सकता है।  इस व्यवस्था के कारण भ्रश्टाचार की सम्भावनाएं ही लगभग समाप्त हो गई है। 

            (ii)    यह कि भ्रश्टाचार के तर्क के बहाने वोटरषिप के विरोध की साजिष की जा सकती है। अगर साजिषन भ्रश्टाचार का मामला उठाया गया है, तो इस तर्क को स्वीकार करना साजिष को हरी झंडी देने जैसा होगा। 

            (iii)   यह कि भ्रश्टाचार की संभावना को आवष्यकता से अधिक महत्व देकर वोटरषिप का प्रस्ताव खारिज नहीं किया जा सकता, क्योंकि इस तर्क को तब तक स्वीकार नहीं किया जा सकता है, जब तक भ्रश्टाचार के सुबूत जहां-जहां भी दिखाई दे रहे हैं, उन सभी षाषकीय तंत्रों को बन्द नहीं कर दिया जाता।

            (iv)   यह कि यदि भ्रश्टाचार की संभावना के आधार पर अमीर लोगों को फायदा पहुंचाने वाले संस्थान बन्द नहीं किये जाते, जबकि इसी आधार पर वोटरषिप का प्रस्ताव खारिज कर दिया जाता है।  तो यह एक अन्यायी फैसला होगा, जो गरीब मतदाता विरोधी व्यक्ति या ऐसी ही संसद व ऐसी ही सरकार द्वारा लिया जा सकता है।

            (v)    यह कि वोटरषिप की प्रस्तावित रकम मतदाताओं को मिलने लग जायेगी, तो गरीबों के नाम पर चल रहे तमाम मंत्रालयों व सरकारी विभागाें, सार्वजनिक तथा सामाजिक संस्थानाें की जरूरत ही समाप्त हो जाएगी-जो भ्रश्टाचार के बड़े अड्डे हैं।  इन विभागों के बन्द हो जाने से भ्रश्टाचार का बड़ा हिस्सा समाप्त हो जाएगा।  अत: वोटरषिप प्रस्ताव को भ्रश्टाचार समाप्त करने के लिए पुरस्कृत किया जाना चाहिए; न कि इसके विपरीत उस पर स्वयं भ्रश्टाचार बढ़ाने का आरोप लगाया जाये।  आरोप निराधार होने के कारण वोटरषिप  के प्रस्ताव के खिलाफ भ्रश्टाचार का तर्क स्वीकार नहीं किया जा सकता। इस विशय में और जानकारी के लिए इस याचिका के अध्याय - 8.5 का संदर्भ ग्रहण करें।

       उक्त (i) से (v) तक के विष्लेशण से स्पश्ट है कि भ्रश्टाचार की आषंका के आधार पर वोटरषिप का प्रस्ताव खारिज नहीं किया जा सकता।

(ज) दुनिया के किसी देष में नहीं है (?)

       वोटरषिप का प्रस्ताव दुनिया के अन्य किसी देष में नहीं है; इस आधार पर इस प्रस्ताव को निम्नलिखित कारणों से खारिज नहीं किया जा सकता-

            (i)    यह कि अमरीका व यूरोप के कई देषों में बेरोजगारों को हर महीना सरकार इतनी रकम देती है, कि उस रकम में वे एक कार तक का खर्च उठा सकते हों ।  यद्यपि यह सत्य है कि हू-ब-हू वोटरषिप जैसा प्रस्ताव दुनिया के किसी देष में कार्यान्वित नहीं है।  किन्तु यह कोई तर्क भी नहीं है, कि केवल वही कार्य किया जाये जो किसी देष में चल रहा हो।  यह सोंच डरपोक लोगों की सोंच है, जो किसी भी तरह की खोज व आविश्कार कर नहीं सकते।  ऐसे लोग आविश्कार हो जाता है तो उसका इस्तेमाल करने के लिए दौड़ते हैं।  डरपोक सोंच से पैदा होने के कारण वोटरषिप के खिलाफ यह तर्क स्वीकार नहीं हो सकता।

            (ii)    यह कि जिन पष्चिमी देषों की तरफ नकल करने के लिए देखा जाता है, उन देषों की चुनौतियां भारत जैसे विकासषील देष जैसी हैं ही नहीं।  जब किसी को दर्द सिर में हो रहा है तो वह पेट दर्द की दवा क्याें खायेअमरीका जैसे पष्चिमी देषों के सामने मुख्य समस्या यह है कि उनके पास विकासषील देषों की मेहनत का जो इफराद पैसा पहुंच गया है, उसका निवेष कहां करें? जबकि भारत जैसे देषों की मुख्य समस्या यह है कि उनके अधिकांष गरीब नागरिकों की गरीबी कैसे दूर हो? जब भारत वाली बीमारी पष्चिमी देषों को है ही नहीं, तो वे भारत के लिए उपयुक्त दवा की खोज क्यों करेंगे, व उसे अपनायेंगे क्यों अगर पष्चिमी देषों को छोड़ दिया जाये तो षेश विकासषील देषों में भारत से बड़ा लोकतांत्रिक देष संसार में दूसरा कोई है ही नहीं।  इसलिए संसार के विकासषील देषों को किस तरह की अर्थव्यवस्था व राजव्यवस्था फायदेमंद है, इसकी खोज करना व उसे प्रदर्षित करके दिखाना भारत जैसे देष का ही दायित्व है।  चूंकि वोटरषिप का प्रस्ताव भारत को लगभग पूरे संसार केर् कत्ताव्यबोध का नेतृत्व करने का अवसर देता है, इसलिए इस प्रस्ताव को केवल इस बचकाना तर्क पर खारिज नहीं किया जा सकता कि वोटरषिप दुनिया के किसी अन्य देष में प्रचलित नहीं है।

            (iii)   यह कि भारतीय संस्कृति में नई चीजों के खोज, नित नूतनता की परम्परा पहले से रही है।  इसीलिए यह उक्ति लोकप्रिय हो सकी, कि- ''लीक-लीक गाड़ी चले, लीकहिं चले कपूत; राह छाड़ि तीनों चले, षायर-सिंह-सपूत''।  इसलिये इस बात पर हाय-तौबा नहीं मचाया जा सकता-कि वोटरषिप की खोज करके, उसे अपनाकर, उसका प्रदर्षन करके भारत एक नया उदाहरण पेष करने जा रहा है; जो उसे नहीं करना चाहिए।  एक सभ्य समाज इस सोंच व ऐसी मान्यताओं के साथ नहीं जी सकता।  इसलिए वोटरषिप के खिलाफ अद्वितीयता का तर्क देकर इस  प्रस्ताव का अवमूल्यन नहीं किया जा सकता।

            (iv)   यह कि ब्राजील सरकार अपने गरीब नागरिकों को ए0 टी0 एम0 कैश कार्ड जारी कर चुकी है, व जनकल्याण की राशि नकद रूप में उन्हें देना शुरू कर दिया है। श्रीलंका सरकार कई दशक पहले से प्रति व्यक्ति पाँच किलो चावल नि:शुल्क देना जारी रखा है। यानी पेट भरने के लिए काम कि शर्त से वहाँ की सरकारों ने नागरिकों को मुक्त कर रखा है। 

       उक्त (i) से (iv) तक के विष्लेशण के आधार पर साबित होता है कि दुनिया के किसी देष में वोटरषिप प्रचलित नहीं है, केवल इस आधार पर वोटरषिप का प्रस्ताव खारिज नहीं किया जा सकता।

(झ) व्यापारियों का नुकसान होगा (?)

       यह कि व्यापारियों के नुकसान की भविश्यवाणी करके वोटरषिप के माध्यम से आर्थिक लोकतंत्र की राजव्यवस्था व अर्थव्यवस्था को अवतरित होने से रोंका नहीं जा सकता।  इसके कारण इस प्रकार हैं-

            (i)    यह कि वोटरषिप के नाम से जब मतदाताओं के घर-घर पैसा पहुंच जायेगा, तो उस पैसे को खर्च करने के लिए; उस पैसे से कुछ खरीदारी करने के लिये, वे अपने आसपास की दुकानों पर जायेंगे।  इससे दुकानदारों व व्यापारियों की बिक्री आज की तुलना में कम से कम दो गुना बढ़ जायेगी।  कुछ दुकानदारों की बिक्री तो 20 गुना तक बढ़ जायेगी।  जितनी बिक्री दुकान से होगी, व्यापारी का मुनाफा भी उतना ही होगा।  बिक्री बढ़ेगी तो मुनाफा भी बढ़ेगा।  इसलिये यह भविश्यवाणी गलत है कि व्यापारियों का वोटरषिप से नुकसान होगा।  वस्तुत: उनका दो तरीके से फायदा होगा।  पहला तो यह है कि उनके परिवार के सभी मतदाताओं को वोटरषिप मिलेगी।  दूसरा यह कि जब ग्राहकों की जेब में पैसा आ जायेगा, तो दुकानदारी भी बढ़ जाएगी।  अत: यह तर्क स्वीकार नहीं किया ज सकता कि व्यापारी वोटरषिप के प्रस्ताव की खिलाफत करेंगे।

            (ii)    यह कि विनिमय की आज की प्रणाली अलोकतांत्रिक व अवैज्ञानिक है।  क्योंकि विनिमय की यह प्रणाली एक अंधे की तरह काम करती है।  यह प्रणाली उत्पादन करने वालों के पास इतना पैसा भेज देती है, कि उद्योगपति लोग  उस पैसे को निवेष करके इतनी सामानें पैदा कर देते हैं कि उतनी सामानें खरीदने के लिए लोगों की जेब में पैसा ही नहीं होता।  परिणाम यह होता है कि खरीद से वंचित सामानें सड़-गल जाती हैं, कूड़े में फेंक दी जाती है।  इससे प्रकृति का भी नुकसान हो जाता है, व समाज को उपयोग का लाभ भी नहीं मिलता।  इसके विपरीत ऐसा भी होता है कि प्रचलित अंधी विनिमय प्रणाली कुछ उत्पादकों को निवेष के लिए बहुत कम पैसा देती है, जबकि उस सामान की वास्तविक मांग  अधिक होती है।  लोग सामान  के लिए तरसते रहते हैं, लेकिन वास्तविक मांग होने के बावजूद उसके उत्पादन के लिए निवेष की रकम नहीं होती है।  अर्थषास्त्र की भाशा में इस वास्तविक मांग को अप्रभावी मांग कहते हैं।  वोटरषिप की  परम्परा एक बार षुरू जाएगी तो वास्तविक मांग को प्रभावी मांग में परिवर्तित करना संभव हो जायेगा। ऐसी उत्पादन इकाइयां महज इसलिये नहीं लगाई जातीं कि वह सामान मांगने वालों की जेब में पैसा नही होता ।  लोगों को वोटरषिप की रकम मिलने लग जायेगी, तो अर्थव्यवस्था का उत्पादन जनाकांक्षा से संचालित हो जाएगा। अत: वोटरषिप सकल घरेलू क्रयषक्ति में वितरण का कोटा है, जो मतदाताओं के पास से व्यापारियों के हाथ में आ जाया करेगी; फिर यह रकम उत्पादक के पास निवेष करने के लिये पहुंच जाया करेगी।  इस विष्लेशण से स्पश्ट है कि वोटरषिप के माध्यम से क्रयषक्ति में वितरण के लिए उसका कोटा आरक्षित हो जाएगा।  जिससे व्यापारियों की आथिक षक्ति बढ़ जाएगी तथा आर्थिक प्रक्रिया ज्यादा वैज्ञानिक तथा लोकतांत्रिक हो जाएगी।  अत: इस प्रावधान को व्यापारियों के पक्ष में तो कहा जा सकता है, उनके खिलाफ इसे सिध्द नहीं किया जा सकता। 

            (iii)   व्यापारियों में 90 प्रतिषत व्यापारी इसी तरीके के होते हैं, जिनका विष्लेशण उक्त बिन्दु   (ii) में किया जा चुका है।  व्यापारियों में  अधिक से अधिक 10 प्रतिषत व्यापारी ऐसे होते हैं; जो अपनी सामानों की बिक्री अपने देष में करने की बजाय दूसरे देषों में करते हैं।  इन 10 प्रतिषत विष्व व्यापारियों के कारण षेश 90 प्रतिषत देषी व्यापारियों को नुकसान उठाना पड़ता है।  यहां तक कि इनकी वजह से कई बार तो घरेलू व्यापारियों का सारा व्यापार चौपट हो जाता है और उन्हें आत्महत्या करनी पड़ती है।  कारण यह होता है कि दुनिया के किसी भी कोने में किसी नई तकनीकी से कोई सामान बहुत सस्ती लागत पर पैदा होने लगता है तो अपने देष का विष्वव्यापारी उस सामान को आयात करके देष की मुद्रा विदेष में तेजी से भेजने लगता है, व देष में बनने वाली वही सामान महंगी होने के कारण बिकना बंद हो जाती है।  इस सामान का व्यापार करने वाले देषी व्यापारी बर्बाद होने लगते है। उदाहरण के लिये भारत में स्कूटर का कारबुरेटर बनाने की लागत 100 रूपये से कम नहीं आती; जबकि थाईलैण्ड जैसे कुछ देषों में भारत में निवास करने वाले विष्व व्यापारी जाकर इसी गुणवत्ताा का कारबुरेटर 60 रूपये में लाये व भारत में बेचने लगे।  इसमें विष्वव्यापारी मालामाल हो गये, जबकि कारबुरेटर व्यवसाय करने वाले देषी व्यापारी बर्बाद हो गये।  इन दोनों व्यापारियों में षार्क मछली व साधारण मछली जैसा रिष्ता होता है।  छोटी मछलियां षार्क मछली को देखकर उसे मछलियों का नेता मान लेती हैं, और एक जगह एकजुटता प्रदर्षित करने के लिए जमा हो जाती हैं।  इनकी एकजुटता देखकर षार्क मुंह खोलकर इन पर हमला करती हैं और एक ही हमले में लगभग सारे झुण्ड को खा जाती है।  देषी व्यापारी व विष्वव्यापारियों में भी इसी प्रकार के संबंध होते हैं।  वोटरषिप का प्रस्ताव देषी व्यापारियाें के लिए तो फायदेमंद है, यह हो सकता है कि विष्वव्यापारियों के लिए इसका विपरीत असर दिखाई दे।  क्योंकि भारत में वोटरषिप की रकम मिलने लगेगी, तो यहां के विष्वव्यापारी जो दूसरे देष में सामान ले जाकर बेचते होंगे, उनका व्यापार धीमा पड़ सकता है क्योंकि भारत में पहले की तुलना में मजदूर महंगे हो जायेंगे और सामान की लागत कुछ बढ़ जायेगी।  इसमें उस सामान की विदेषों में ; खासकर उन देषों में मांग गिर जायेगी, जहां की सरकार ने वोटरषिप देना चालू नहीं किया होगा।  जबकि जो सामान देष में पैदा होकर  देष में ही बिक रहा होगा; उस सामान का व्यापार करने वाले देषी व्यापारी का व्यापार धीमा पड़ने की बजाय बढ़ जायेगा।  इस विष्लेशण से सिध्द होता है कि वोटरषिप का यदि थोड़ा बहुत विपरीत प्रभाव पड़ सकता है तो केवल 2 प्रतिषत विष्वव्यापारियों पर पड़ सकता है।  इसे सारे व्यापारियों के खिलाफ कहने में अधिमूल्यन दोश है।  अत: यह तर्क स्वीकार नहीं किया जा सकता। 

            (iv)   अंतर्राश्ट्रीय प्रभावों को और बेहतर ढ़ंग से समझने के लिये इस याचिका के अध्याय - 5 का संदर्भ ग्रहण करें। 

       उक्त (i) से (iv) तक के विष्लेशण के आधार पर यह सिध्द होता है कि देष के व्यापारियों पर वोटरषिप का अच्छा प्रभाव होगा, इसलिये वे समर्थन करेंगे ।  यह भी सिध्द होता है कि यह भविश्यवाणी गलत है कि इससे व्यापारियों का नुकसान होगा।

(ञा) काम करने को मजदूर नहीं मिलेंगे (?)

       यह कि मजदूर नहीं मिलेंगे, इस आषंका मात्र के आधार पर वोटरषिप के प्रस्ताव की खिलाफत नहीं की जा सकती, क्योंकि यह आषंका निम्नलिखित कारणों से निराधार है-

            (i)    यह कि यह आषंका उन्हीं मान्यताआें से जन्मी है, जिन मान्यताओं से यह आषंका जन्म लेती है कि वोटरषिप प्राप्त कर लेने के बाद गरीब मतदाता काम करना बंद कर देंगे।  इस याचिका के अध्याय - 3.1(ग) और 3.2(ग) में इस आषंका का विष्लेशण किया जा चुका है, और यह आषंका निराधार सिध्द हो चुकी है।  इस मामले को विस्तार से समझने के लिए उक्त अध्यायों का संदर्भ लिया जा सकता है। 

            (ii)    यह कि कृशि का काम करने के लिए मजदूर नहीं मिलेंगे, यह आषंका भी सत्य नहीं है।  कारण यह है कि यह किसानों की आषंका नहीं है, अपितु सामंतों की आषंका है।  जो व्यक्ति मजदूरों से खेती करवाता है, वह खेती को एक उद्योग की तरह चलाता है, उसे वह सहानुभूति प्राप्त करने का नैतिक अधिकार नहीं है, जो असली किसान यानी केवल अपने व अपने परिवार की मेहनत से काम करने वाले किसान के प्रति सहज रूप में सुलभ होती है।  किसान, सामंती किसान व व्यापारिक किसान में अंतर किये बिना कष्शि क्षेत्र के मजदूरों व किसानों के विशय में वैज्ञानिक विष्लेशण नहीं किया जा सकता।  वोटरषिप का कष्शि क्षेत्र के मजदूरों पर यह तो असर होगा, कि अब मजदूर थोड़े महंगे हो जायेंगे, जिससे उनकी आर्थिक दषा बेहतर हो जाएगी।  ये मजदूर महंगे हो जायेंगे, तो कष्शि उत्पादों की कीमतें भी थोड़ी बढ़ जायेंगी; चूंकि पूरे देष भर में मजदूरों की दषा बेहतर हो जायेगी, इसलिये ऐसा नहीं होगा कि किसी एक जगह मजदूर न मिले, षेश जगह मिलते रहें।  वोटरषिप की रकम मिल जाने से खाद्यान्नों की मांग भी बढ़ जाएगी; इस मांग के कारण ज्यादा उत्पादन करना संभव हो जाएगा और उसे लाभप्रद कीमत पर आसानी से बेचा जा सकेगा।  इसलिए कुल मिलाकर परिणाम यह होगा कि मजदूरों की दषा सुधरेगी और किसानों की ज्यादा बिक्री होने व ज्यादा कीमत में बिक्री होने के कारण उनकी आर्थिक दषा भी सुधरेगी। अर्थव्यवस्था की आर्थिक इमारत में आज मजदूर बेसमेंट के नीचे दूसरी तह में है, और किसान पहली मंजिल पर है ।  वोटरषिप का प्रस्ताव कार्यान्वित होने पर किसान तीसरी मंजिल पर चढ़ जायेगा, मजदूर बेसमेन्ट से निकलकर पहली मंजिल पर आ जायेगा।  किन्तु यह आषंका निराधार है कि मजदूर मिलेंगे ही नहीं। 

            (iii)   यह कि यह तर्क एबी संवेदी चेतना की स्वाभाविक उपज हो सकती है।  विस्तार के लिए अध्याय - 1.2(x) देखें।

     उक्त बिन्दु (i) से (iii) के आधार पर स्पश्ट है कि वोटरषिप के कारण मजदूर मिलना बंद हो जायेंगे, यह आषंका निराधार है; व वोटरषिप के खिलाफ इस तर्क को स्वीकार नहीं किया जा सकता।

(ट) केवल वोट देने वालों को मिले (?)

       यह कि वोटरषिप केवल वोट देने वालों को ही मिले, यह तर्क निम्नलिखित कारणों से स्वीकार नहीं किया जा सकता-

            (i)    यह कि अगर केवल मतदान के दिन वोट देने वालों को ही वोटरषिप का अधिकार दिया जायेगा, तो गरीबी तथा जनसंख्या नियंत्रण का उद्येष्य पूरा नहीं हो पायेगा।  क्योंकि क्षेत्र के दबंग लोग तमाम मजदूरों को उस दिन छुट्टी ही नहीं देंगे, जिस दिन मतदान होगा।  नौकरी जाने का खतरा देखकर तमाम लोग मतदान करने जायेंगे ही नहीं। अगर यह तर्क मान लिया गया तो वोटरषिप की रकम प्राप्त करने की ऐसे लोग पात्रता ही खो देंगे।  अत: यह तर्क स्वीकार नहीं किया जा सकता।

            (ii)    यह कि मतदान करने की अनिवार्य षर्त लगा देने से मतदान केन्द्रों पर हिंसा की संभावनाएं इसलिए बढ़ जायेगी क्योंकि आपसी दुष्मनी साधने के लिए कुछ लोग अपने षत्रुओं को मतदान केन्द्र पर न पहुंचने देने के लिए किसी भी हद तक जा सकत हैं। यानी घर-घर का झगड़ा मतदान केन्द्र तक पहुंच सकता है, इसलिए वोटरषिप की 5-10 प्रतिषत रकम के भुगतान के लिए मतदान करने की षर्त तो जोड़ी जा सकती है, पूरी रकम के साथ यह षर्त जोड़ना अनुचित होगा।

            (iii)   यह कि मतदान में भाग लेने से पढ़े लिखे लोग व सम्पन्न लोग कतराते हैं, गरीब नही। यदि पैसे की प्रेरणा से मतदान प्रतिशत बढ़वाने का प्रयास किया जाएगा तो सम्पन्न लोगों को थोड़ी सी रकम का लोभ मतदान केन्द्र तक आकर्षित नही कर पाएगा। यह आकलन गलत है कि वोटरशिप की रकम से मतदान का अनिवार्य रिश्ता जोड़ देने पर सम्पन्न लोग भी मतदान करने वालों की पंक्ति में जा कर खड़े हो जाएंगे। वस्तुत: सम्पन्न लोग तभी मतदान कर सकते हैं, जब उनकी नागरिकता निरस्त करने या उनके सम्पत्ति अधिकार को समाप्त करने जैसा कठोर उपाय किया जाएगा।

            (iv)   यह कि राश्ट्र के साझे धन में किसी मतदाता का हिस्सा है ही, चाहे वह मतदान करे या न करे।  साझे धन के बारे में अधिक जानकारी के लिये याचिका के अध्याय - 13.4 का संदर्भ ग्रहण करें।

            (v)    यह कि उत्तराधिकार में नागरिकों को वोट के नाम से राजनैतिक अधिकार देना और पिता की सम्पत्ति के नाम पर विरासत का अधिकार देना; दोनों अलग-अलग चीजें हैं। किसी व्यक्ति को जब एक सीमा से अधिक आर्थिक विरासत का अधिकार शासन द्वारा प्राप्त हो जाता है, तो वोट का अधिकार उसके लिए अर्थहीन हो जाता है। इसलिए वह मतदान करने के लिए प्रेरित नही होता। इस परिस्थिति को देखते हुए व आर्थिक अवसरों की समता के सिध्दांत को देखते हुए यह उचित है कि शासन जिस व्यक्ति को एक सीमा से अधिक आर्थिक सत्ता उत्तराधिकार में द,े उसे वोट का अधिकार न दिया जाए। जब उनका अधिकार ही नही रहेगा, तो वोट करने की न तो उन्हें जरूरत पडेग़ी और न ही उनसे मतदान करने की अपेक्षा की जाएगी। वस्तुत: नागरिक और राज्च का रिश्ता श्रेणी (सिरीज) रिश्ता है, या समानान्तर रिश्ता है; वैश्वीकरण के वर्तमान युग में अब इसे बिना परिभाषित किये आगे नही बढ़ा जा सकता। अमीरों को वोट का अधिकार दिया जाये, या नही, यह सवाल तब तक हल नहीं हो सकता,जब तक उक्त परिभाषा तय नहीं किया  जाता।

       उक्त बिन्दु (i) से (vतक के विष्लेशण से स्पश्ट है कि वोटरषिप के साथ वोट देने की षर्त नही लगाई जा सकती।

(ठ) न्यूनतम जरूरतों की गारंटी मिले, वोटरषिप नहीं (?)

       यह कि न्यूनतम जरूरताें की वकालत करके वोटरषिप का प्रस्ताव निम्नलिखित कारणों से खारिज नहीं किया जा सकता-

            (i)    यह कि न्युनतम जरूरतें पूरी करने की सोंच एक सामंतवादी सोंच है, जिसमें यह मान्यता निहित होती है कि राजा का फर्ज है कि प्रजा के घर में नजर रखे-कि उन सबके घर रात में चूल्हा जल रहा है या नहीं।  जबकि प्रजातंत्र में इसके विपरीत होता है।  प्रजा राजा के चूल्हे पर नजर रखती है।  इसलिए प्रजातंत्र में यह तो संभव है कि मतदाता सरकार की न्युनतम जरूरताें का ध्यान रखते हुए औसत राश्ट्रीय आय में अपने हिस्से की आधी रकम सरकार के लिए छोड़ दें लेकिन यह नहीं हो सकता कि प्रजातंत्र में भी सरकार मतदाताओं को प्रजा ही मानती रहे, अपने व अपनों के लिए ऐषो-आराम का इंतजाम करे व मतदाताओं को उनकी प्राण बचाने के लिए क्या-क्या जरूरत है, यह बात डॉक्टरों से पूंछे।  प्राणरक्षा के लिए आवष्यक न्युनतम जरूरतों वाली सोंच वस्तुत: मतदाताओं को घरेलू नौकर या घरेलू जानवर के रूप में देखने की मान्यता से निकली सोंच है।  इसलिए एक लोकतांत्रिक चेतना रखने वाला समाज इसे स्वीकार नहीं कर सकता। यहां तक की लोकतंत्र को प्रजातंत्र कहना भी खतरे से खाली नही है, क्योंकि इससे यह ध्वनित होता है, कि जैसे लोग अभी भी राजा की प्रजा जैसे हैं।

            (ii)    यह कि लोकतंत्र कुछ लोगों के लिये विषेशाधिकारों की रक्षा करने की साजिष होता है।  यदि ऐसी साजिष करना नियति न हो तो न्याय चाहने वाले व्यक्ति का ध्यान मतदाताओं की  न्युनतम आवष्यकता पूरा करने की वकालत करने की तरफ नहीं जाएगा; अपितु न्यूनतम आर्थिक समानता कायम करने वाली अर्थव्यवस्था व राजव्यवस्था कायम करने की तरफ जायेगा।  अत: न्युनतम जरूरत की वकालत करने वाला व्यक्ति या तो बहुत भोला होगा, या फिर वोटरषिप के खिलाफ मीठा जहर दे रहा होगा।  दोनों ही स्थितियों में वोटरषिप के खिलाफ न्युनतम जरूरतों वाला तर्क स्वीकार नहीं हो सकता ।

            (iii)   यह कि मान लीजिए कि न्युनतम जरूरतें यदि आज 10 रूपये प्रतिदिन से पूरी हो सकती हों, और आज प्रति व्यक्ति औसत आय प्रतिदिन 50 रूपये हो।  अर्थव्यवस्था की दषायें बदलें; औसत आय 50 रूपये से बढ़कर 500 रूपये प्रतिदिन हो जाये। तो क्या देष में इतनी अमीरी आ जाये, फिर भी गरीब लोगों को 10 रूपया ही प्रतिदिन मिलते रहना चाहिए दूसरी दषा पर विचार करिये।  यदि औसत  आय 50 रूपये से गिरकर 8 रूपये प्रतिदिन हो जाये, तो क्या गरीबों को 10 रूपये रोज देने के लिए हर महीने सरकार विदेष से प्रति गरीब 20 रूपये का कर्ज ले आयेगी स्पश्ट है कि यदि न्युनतम जरूरतें सकल घरेलू उत्पाद से नहीं जुड़ी होंगी तो एक हास्यास्पद स्थिति पैदा करेंगी और यदि सकल घरेलू उत्पाद से यह रकम जुड़ी होगी, तो इसे न्यूनतम जरूरत कहने की बजाय न्यूनतम हिस्सा या न्यूनतम समानता रेखा कहना ही उचित होगा।  स्पश्ट है कि न्यूनतम जरूरतों को सुलभ कराने वाला तर्क अवैज्ञानिक-अतार्किक है। इसलिए अस्वीकार्य है।

            (iv)   यह कि परिवार में गरीबी बढ़ने से सभी सदस्यों के उपभोग का स्तर गिर जाता है, व अमीरी बढ़ने से उपभोग का स्तर बढ़ जाता है।  परिवार में घर का मालिक यह तय नहीं करता कि खुद तो पूड़ी-पकवान खाये और परिवार के दूसरे सदस्यों की न्युनतम जरूरतें क्या हैं, यह सलाह मांगने डॉक्टर के पास जाये।  और डॉक्टर की सलाह पर घर वापस आये और यह कह दे; कि आधी रोटी सुबह, आधी रोटी षाम खाते रहोगे, अपने ऊपर पुआल (सूखी घास) ओढ़े रहोगे तो मरने से बचे रहोगे.....।  वस्तुत: लोकतांत्रिक देष एक परिवार का ही वृहद रूप है।  इसीलिए सकल घरेलू उत्पाद, घरेलू आय, घरेलू (गृह) नीति, घरेलू उपभोग जैसे षब्द प्रचलन में होते हैं।  देष के विष्लेशण्ा में देष को घर मानना, किन्तु गरीबी उन्मूलन के मामले पर न्युनतम जरूरतों की बात षुरू कर देना एक अस्पश्ट, नासमझ और दिग्भ्रमित व्यक्ति का लक्षण है।  ऐसे व्यक्ति का तर्क स्वीकार करने से पूरी राजनैतिक-आर्थिक व्यवस्था में ही भ्रम फैल गया है ।  वर्तमान  व्यवस्था में इसकी उपस्थिति को न्युन से न्युनतम करना व्यवस्थाकारों की प्राथमिक जिम्मेदारी है इसलिए ऐसे अधकचरे तर्कों की स्वीकष्ति को और आगे नहीं बढ़ाया जा सकता।

            (v)    यह कि न्युनतम जरूरतें सरकार पूरी करे; यदि इस उपाय में कोई दम होता तो यह उपाय अब तक अपना असर दिखा चुका होता, क्योंकि यह बहुत ही पुराना उपाय है।  यह एक एक्सपायर दवा की तरह है जिसे कोर्इ्र ऐसा नाटकबाज व साजिषकर्ता ही अपना सकता है जो गरीबी उन्मूलन के नाम पर लोगों को धोखा देना चाहता हो, व स्वयं सत्ताा पाना चाहता हो। एक्सपायर तर्क होने के कारण यह तर्क अस्वीकार्य है।

       उक्त बिन्दु (i) से (v) तक के विष्लेशण के आधार पर वोटरषिप के प्रस्ताव के खिलाफ न्युनतम जरूरतों की गारंटी देने वाला तर्क स्वीकार नहीं किया जा सकता। 

(ड) वोटरषिप नहीं, विकेन्द्रित अर्थव्यवस्था अपनाई जाये (?)

       यह कि केन्द्रित उत्पादन व्यवस्था के कारण ही वोटरषिप का प्रष्न उठता है ।  इसलिये यह व्यवस्था अपनायी ही न जाये। यह तर्क निम्नलिखित कारणों से स्वीकार नहीं किया जा सकता-

            (i)    यह कि केन्द्रित अर्थव्यवस्था को किसी व्यक्ति ने नहीं, समय-समय पर होने वाले तकनीकी आविश्कारों ने पैदा किया है।  जो मानवातीत परिघटना है।  इसलिए ऐसी चीजों को रोकने में एक नासमझ व्यक्ति ही अपनी ऊर्जा लगा सकता है।

            (ii)    केन्द्रित उत्पादन प्रणाली उत्पादन के विषिश्टीकरण के कारण पैदा होती है, जो नियंत्रित हो ही नही सकती। इसलिये यह तर्क वोटरषिप से ध्यान हटाने की साजिष भी हो सकता है, इसलिए स्वीकार नही किया जा सकता।

            (iii)   यह कि यह तर्क एक दक्षिणपंथी आर्थिक सोंच की स्वाभाविक उपज हो सकता है।  आनुवंषिक कारणों से कुछ लोगों को अतीत की आर्थिक सभ्यता मनमोहक लगती है।  विकेन्द्रित उत्पादन प्रणाली का तर्क इस तरह के आनुवंषिक मोह से प्रेरित हो सकता है।  इसलिए इसे स्वीकार नहीं किया जा सकता।

            (iv)   यह कि विकेन्द्रित उत्पादन प्रणाली तभी संभव है जब उत्पादन व्यवस्था से बिजली, पेट्रोलियम जैसे ऊर्जा के स्त्रोताें,नहर,सड़क,रासायनिक उर्वरक...जैसी चीजों को अर्थव्यवस्था से अवकाष दे दिया जाये।  यही चीजें उत्पादन प्रणाली को केन्द्रीकरण की तरफ ले जाती है।  ऐसा अतीत में उसी समय संभव या, जब जनसंख्या बहुत कम थी व ऊर्जा का प्रमुख स्त्रोत मानव श्रम व पषु श्रम ही था।  चूंकि पषु व मानव श्रम मात्र से वर्तमान जनसंख्या का पेट भी नहीं भर सकताअत: विकेन्द्रित उत्पादन प्रणाली अतीत का सच था किन्तु वह वर्तमान तथा भविश्य का सपना बना रहेगा; यथार्थ में नहीं उतर सकता।  स्वप्नवत तर्क होने के कारण इसे स्वीकार नहीं किया जा सकता।

            (v)    यह कि आर्थिक इतिहास की प्रवृतियां इस तर्क के खिलाफ हैं, इसलिये यह तर्क अस्वीकार्य है।

            (vi)   यह कि इस तर्क के कई प्रस्तुतकर्ता स्वयं यह नहीं समझ पाते कि वह कह क्या रहे हैंक्योंकि एक तरफ वे विकेन्द्रित उत्पादन प्रणाली की भी वकालत करते हैं दूसरी तरफ राश्ट्रवादी सबलता की भी जो निष्चित रूप से सकल घरेलू उत्पाद व विकास दर की अंतर्राश्ट्रीय प्रतिस्पर्धा से ही हासिल होती है।  परस्पर विरोधी बात यह साबित करती है कि ऐसे तर्क के प्रस्तुतकर्ता मानसिक द्वंध्द के षिकार हैं।  इसलिए उनका तर्क स्वीकार करने से पूरी व्यवस्था द्वन्ध्द के दलदल में ही फंसेगी। 

            (vii)   यह कि विकेन्द्रित उत्पादन प्रणाली असंभव है, जबकि वोटरषिप से विकेन्द्रित वित्ता प्रणाली संभव है।  इसलिये अगर विकेन्द्रित उत्पादन प्रणाली के षब्द के पीछे आर्थिक न्याय की मंषा है तो उपयुक्त षब्द विकेन्द्रित वित्ताीय प्रणाली या विकेन्द्रित विनियम प्रणाली ही हो सकता है।  यदि विकेन्द्रित उत्पादन प्रणाली के षब्द के पीछे आर्थिक बलात्कार को बनाये रखने की मंषा हो तो यह तर्क अस्वीकार्य है।

            (viii)   यह कि वोटरषिप की खिलाफत करने व सुरक्षित बने रहने का यह मुद्दा भी एक हथियार हो सकता है, ''कहीं पे निषाने, कहीं पे नजारे'' की संभावना होने के कारण यह तर्क अस्वीकार्य है।

       उक्त बिन्दु (i) से (viii) तक के विष्लेशण के आधार पर साबित होता है कि विकेन्द्रित उत्पादन प्रणाली वोटरषिप का विकल्प नहीं मानी जा सकती।

(ढ़) अर्थषास्त्री वोटरषिप के खिलाफ  (?)

       यह कि अर्थषास्त्री वोटरषिप के खिलाफ हैं, क्योंकि वोटरषिप का प्रस्ताव अर्थषास्त्र के अनुकूल नहीं हैं; इस तर्क के आधार पर वोटरषिप का प्रस्ताव निम्नलिखित कारणों से खारिज नहीं किया जा सकता-

            (i)    यह कि अर्थषास्त्री कौन है, इस बात को तय करने का कोई सर्वमान्य व वैज्ञानिक सूत्र उपलब्ध नहीं है।  जब अर्थषास्त्री का अस्तित्व ही विवादास्पद है तो संदिग्ध अस्तित्व के द्वारा व्यक्त निश्कर्श निष्चित रूप से संदिग्ध होगा।  इसलिये एक संदिग्ध निश्कर्श को वोटरषिप का प्रस्ताव खारिज करने का पर्याप्त आधार नहीं माना जा सकता।

            (ii)    यह कि अर्थषास्त्र की पुस्तकें पढ़ने वाले, व उन पुस्तकों को पढ़ाने वाले अगर अर्थषास्त्री माने जायेंगे, तो दर्षन षास्त्र को पढ़ने वाले व पढ़ाने वालों को दार्षनिक कहना पड़ेगा।  अगर इनको दार्षनिक कह दिया जायेगा तो रूसो, प्लेटो, मर्ाक्स, लोहिया .....जैसे दार्षनिकों की आत्माओं का सिर षर्म से झुक जायेगा।  अगर दर्षन षास्त्र के पढ़ने-पढ़ाने वालों को दार्षनिक माना गया, तो देष में दर्षन विशय से स्नातक उत्ताीर्ण लाखों लोगों को दार्षनिक मानना पड़ेगा; इससे दर्षन षब्द का अर्थ ही पतित व परिवर्तित हो जायेगा।  स्पश्ट है कि अर्थषास्त्र पढ़ने व पढ़ाने वालों को अर्थषास्त्री कहा ही नहीं जा सकता, इसलिए उनकी टिप्पड़ी को विषेशज्ञ की टिप्पड़ी नहीं माना जा सकता।

            (iii)   यह कि षास्त्रज्ञता व्यक्ति की एक जन्मजात विषेशता होती है, जो उस विशय की महाविद्यालयी डिग्री-डिप्लोमा की मोहताज नहीं होती।  षास्त्रज्ञता ज्ञान व अनुभूति की एक प्रज्ञात्मक उत्पाद है।  इसलिये विष्वविद्यालयों के प्राध्यापकों की वोटरषिप के खिलाफ टिप्पड़ी को अर्थषास्त्री की टिप्पड़ी नहीं माना जा सकता।

            (iv)   यह कि ऐसा नहीं हो सकता कि अर्थषास्त्र विशय का अध्यापन करने वाले देष के सभी लोगों से गुप्त मतदान कराया जाये, तो सारा मत वोटरषिप के प्रस्ताव के खिलाफ पड़े।  अगर कुछ मत वोटरषिप के पक्ष में पड़ गया, तो वोटरषिप के समर्थकों को अर्थषास्त्री कहा जायेगा, या विरोधियों को ऐसी दषा में दण्ड का पात्र कौन होगा, समर्थक या विरोधी या इन दोनों को डिग्री देने वाली षिक्षा व्यवस्थाजब तक इन प्रष्नों पर सर्वसम्मति नहीं बन जाती, तब तक वोटरषिप के प्रस्ताव को केवल इसलिये खारिज नहीं किया जा सकता कि तथाकथित कुछ अर्थषास्त्रियों ने इस प्रस्ताव की खिलाफत की है।

            (v)    यह कि लोकवित्ता व अर्थषास्त्रीय चिन्तन के अन्य विशयों पर स्थापित अर्थषास्त्रियों में ही मतभेद हैं। इसलिए केवल राजसत्ताा का लाभ उठाने वाले सामाजिक वर्गों के लोग अपने निजी फायदे-नुकसान का आकलन करके किसी अर्थषास्त्री को सही व किसी दूसरे को गलत ठहराते हैं।  अर्थषास्त्र पढ़ने-पढ़ाने वाला जो व्यक्ति सत्तााधारी समुदाय के विषेशाधिकारों की वकालत कर दे, वह अर्थषास्त्री मान लिया जाता है, जो आर्थिक न्याय की बात कर दे उसे अर्थषास्त्र का अज्ञानी करार दे दिया जाता है।  स्पश्ट है कि हर राजसत्ताा अपने स्वभाव के अनुसार पालतू अर्थषास्त्रियों का एक वर्ग रखती है जिसे षिक्षक या अधिकारी की पदवी देकर नियमित भुगतान करती है।  इसलिए ऐसे लोगों द्वारा प्रचारित निश्कर्श स्वार्थ का निश्कर्श होता है, इसे षास्त्र का निश्कर्श मानने की भूल नहीं करनी चाहिये।

            (vi)   यह कि तथाकथित अर्थषास्त्री भरपूर रोजगार उपलब्ध कराने या देष को विकसित देष बनाने के बारे में समय-समय पर कुछ सुझाव देते रहते हैं।  अगर उन पर यह षर्त लगा दिया जाये कि अगर उनकी भविश्यवाणी गलत हुई, तो उन्हें फांसी की सजा दे दी जायेगी; या जब तक पूर्ण रोजगार की अवस्था प्राप्त नहीं हो जाती, तब तक के लिए ऐसे तथाकथित अर्थषास्त्रियों को बेरोजगार व पूर्णतया निर्धन बनाकर रखा जायेगा-तो उनके निश्कर्श बदल जायेंगे।  यह प्रयोग करके देखा जाये, तो बड़े रोमांचक अनुभव आयेंगे और स्पश्ट हो सकेगा कि इन लोगों के मुंह से अर्थषास्त्र नहीं बोलता, कुछ लोगों के विषेशाधिकारों की वकालत करने के बदले में मिलने वाला पैसा बोलता है।  चूंकि यह पैसे की आवाज है, अर्थषास्त्र की नही; इसलिए विरोधी सुर को अर्थषास्त्र का सुर नहीं कहना चाहिए।

            (vii)   यह कि विष्वविद्यालय में अर्थषास्त्र के एक प्रवक्ता, या षासकीय क्षेत्र में कार्यरत एक अधिकारी या पत्रकारिता के क्षेत्र में कार्यरत कोई पत्रकार स्वयं यह विभाजक रेखा नहीं खींच सकता, कि किस हद तक वोटरषिप पर उसकी टिप्पड़ी अर्थषास्त्रबोध की उपज है? किस हद तक उसकी अपनी आर्थिक सहूलियतों की रक्षाबोध की उपज है। वह यह भी नही जानता कि उसका विराधी स्वर किस हद तक उसकी तंत्रिका तंत्र में बहने वाली विद्युत के वर्गबोध की उपज है कोई वास्तव में अर्थषास्त्री होगा और  इन आयामों से अपना मानसिक विष्लेशण करेगा तो वोटरशिप के प्रस्ताव पर स्वयं को अर्थषास्त्री की हैसियत से कोई आधिकारिक टिप्पड़ी करने से बचेगा।

            (viii)   यह कि अगर अर्थषास्त्रियों की राय से ही देष चल सकता, तो बजट बनाने, उसे लागू करने का अधिकार विष्वविद्यालयों के अर्थषास्त्र विभागों को दे दिया गया रहता।  यह अधिकार संसद अपने पास नहीं रखती।  चूंकि ऐसा नहीं है, इसलिए अर्थषास्त्रियों की राय को वोटरषिप के विशय में निर्णायक राय नहीं माना जा सकता ।

            (ix)   यह कि वोटरषिप का प्रस्ताव चूंकि लोगों के जीवनाधिकार से संबंधित गंभीर मामला है इसलिये इस पर अंतिम फैसला या तो निश्पक्ष जनमत संग्रह से हो सकता है, या संसद से हो सकता है, न कि अर्थषास्त्रियों की राय से।

            (x)    यह कि वोटरषिप से संबंधित स्थापित अर्थषास्त्रियों की टिप्पड़ी से परिचित होने के लिये इस याचिका के अध्याय - 7 का संदर्भ लें। 

       उक्त बिन्दु (i) से (x) तक के आधारों से साबित होता है कि केवल अर्थषास्त्रियों का विरोध वोटरषिप का प्रस्ताव खारिज करने का पर्याप्त आधार नहीं हो सकता।

(ण) आर्थिक आंकड़े महज धोखा (जग्लरी) है (?)

       यह कि - ''विकास दर, प्रति व्यक्ति औसत आय, सकल घरेलू उत्पाद क़ृ आदि विशय से संबंधित सरकारी व गैर सरकारी एजेंसियों के आंकड़े सत्य नहीं होते, अपितु सर्वेक्षण की खानापूर्ति करने वालों की महज हाथ की सफाई और हेराफेरी (जग्लरी) होते हैं। इसलिए इन आंकडों पर विष्वास करके वोटरषिप की रकम मतदाताओं के बीच वितरित करने की महत्वकांक्षी योजना नहीं बनाई जा सकती''- इस निश्कर्श को स्वीकार करके मतदाताओं को राश्ट्र की आर्थिक विरासत की सम्पत्तिा के किराये में उनके हिस्से के किराये को वोटरषिप के नाम से, नियमित वितरण की विधायी प्रक्रिया को तिलांजलि देना निम्नलिखित कारणों से सम्भव नही है -

            (i)    यह कि आंकड़ों को यदि कुछ एजेन्सियों का छल और धोखा मान भी लिया जाए तो भी पूरे देष में निजी स्वामित्व व उत्तराधिकार के कानूनों के कारण खाली पड़ी उपयोग से वंचित जमीनों, मषीनों, मकानों, यातायात के साधनों, पूंजी के अन्य रूपों को धोखा और भ्रम नही कहा जा सकता है। ये चीजें ठोस सच्चाई है, जिसे नजर अंदाज नही किया जा सकता। वोटरषिप की रकम  सक्षम कानूनी प्रावधानों व सक्षम संस्थानों द्वारा उपयोग से वंचित पूंजी व उपयोग से वंचित सम्पत्ति के सदुपयोग से पैदा होगी। इसलिए इस प्रस्ताव को इतनी सहजता से मात्र आंकड़ों की जग्लरी कहकर खारिज नही किया जा सकता। सम्पत्ति के सदुपयोग व आर्थिक दोहन के विशय में और ज्यादा जानकारी के लिए इस याचिका के अध्याय 13 के साक्ष्य (4) का संदर्भ लें।

            (ii)    यह कि आंकड़ों को जग्लरी मानने वाले लोग इस हथियार को केवल वोटरषिप जैसे उन उपायों के खिलाफ उपयोग करते हैं, जो उपाय आम आदमी की आर्थिक बेहतरी के लिए सामने आते हैं। इसलिए ऐसे लोगों की नियति संदिग्ध हो जाती है। यदि वास्तव में ऐसे लोग आंकड़ों को जग्लरी मानते, तो विकास को देखने के लिए आंकड़ों की सूक्ष्मदर्षी का इस्तेमाल न करते तथा सांख्यिकी मंत्रालय व सांख्यिकी से जुड़े समस्त विभागों को भंग करने का कोई प्रयास अतीत में किये रहते। इसलिए आंकड़ों में प्रतिषतता का दोश तो हो सकता है, षत प्रतिषत आंकड़ों को धोखा व जग्लरी नही कहा जा सकता।

            (iii)   यह कि राश्ट्र की औसत आय व औसत कर्ज दोनों की जानकारी आंकड़ों से ही मिलती है। अगर राश्ट्र की औसत आय आंकड़ों की एक धोखाधड़ी है तो राश्ट्र का औसत कर्ज भी एक भ्रम है। अगर औसत आय नही है, तो औसत कर्ज भी नही है। अगर आंकडों में सच्चाई से ज्यादा औसत आय बताई जाती है, तो आंकड़ों में सच्चाई से ज्यादा कर्ज भी बताया जाता है। औसत कर्ज के मामलों में आंकड़ों का हवाला देना व औसत आय के मामले में आंकड़ों को जग्लरी बताना नियति पर संदेह पैदा करता है। इसलिए अमान्य है।

            (iv)   यह कि जग्लरी के दो अर्थ हैं - किसी सच्चाई को कम करके बताना, व किसी सच्चाई को ज्यादा बढ़ाकर बताना। अगर आंकड़े जग्लरी है, तो दूसरी सम्भावना यह भी है कि राश्ट्र की औसत आय, जितनी आंकड़ों में बताई जाती है, यह रकम वास्तव में उससे कई गुना ज्यादा भी हो सकती है। सच्चाई तो तब सामने आएगी जब संघीय सरकार वोटरषिप के काम को अपनी कार्यसूची में प्राथमिकता क्रम में रखकर इसे लागू करने की दिषा में काम षुरू करेगी। इसलिए आंकड़ों की असत्यता के तर्क को वोटरषिप की विधायी प्रक्रिया के खिलाफ इस्तेमाल करने का यह उपयुक्त समय नही है। इस विशय में और विस्तार से जानने के लिए इस याचिका के अध्याय - 7(ज) का संदर्भ ग्रहण करें।

       उक्त पैरा (i) से (iv) तक के विष्लेशण से स्पश्ट है कि आंकड़ों  पर संदेह व्यक्त करके वोटरषिप के प्रस्ताव को खारिज नही किया जा सकता।

(त) आदिवासी क्षेत्रों के लोग वोटरषिप की रकम ए.टी.एम. मषीनों से निकाल ही नही पाएंगे (?)

       यह कि- ''ए.टी.एम. मषीनों में पैसा जमा करना व उनसे निकालना भारत जैसे अषिक्षित देष के मतदाताओं के वष के बाहर की बात है। इसलिए उनके पैसे को बिचौलिये हड़प कर जाएंगे।'' इस तर्क पर वोटरषिप के प्रस्ताव को निरस्त नही किया जा सकता, क्योंकि -

            (i)    यह कि आज जो लोग ए.टी.एम. मषीन चलाना सीखे हैं, वे पेट से सीखकर नही आए थे। यानी मानव मस्तिश्क पर भरोसा करना चाहिए कि वह जानवर से अलग स्वभाव का है। पैसा सब कुछ सिखा देता है। ए.टी.एम. चलाना भी सिखा देगा।

            (ii) यह कि जब बैंकों को पता चलेगा कि वोटरों के वोटरषिप की रकम से उन्हें 10-5 रूपये हर वोटर से कमीषन मिलने वाला है तो उनके कर्मचारी पैसे के लालच में आदिवासी लोगों को उनके जंगलों में जा कर ए.टी.एम. मषीनें चलाना सिखा देंगें।

            (iii)   यह कि जिस परिवार में पैसा आ जाता है उसमें षिक्षा स्वत: प्रवेष कर जाती है। यह षिक्षा स्वत: पिछड़े से पिछड़े इलाके के मतदाता को ए.टी.एम. मषीन चलाना सिखा देगी।

            (iv)   यह कि यदि आदिवासियों के पैसे को भ्रश्ट लोगों द्वारा अपह्नत करने की आषंका 2-4 प्रतिषत सही भी मान लें, तो दो चार साल बीतने पर आदिवासी लोग स्वयं समझ जाएंगे, कि उनकी जागरूकता की कमी से उनका हर महीना हजारों रूपये का नुकसान हो रहा है। थोड़े ही समय में उनके सावधान होते ही भ्रश्ट लोगों के लिए भ्रश्टाचार के अवसर समाप्त हो जाएंगे।

            (v) यह कि आदिवासी व पिछडे ऌलाके के लोगों की काबिलियत साबित हो चुकी है। इसलिए उनकी साक्षरता पर तो सवाल खड़ा किया जा सकता है, उनके विवेक पर सवाल खड़ा करना और स्वयं को समझदार समझना एक भ्रमपूर्ण निश्कर्श है।

       उक्त पैरा (i) से (v) तक की सूचनाओं से साबित होता है कि भ्रश्ट लोगों द्वारा आदिवासी लोगों की रकम हड़पने की सम्भावना न के बराबर हैं। जो है भी, वह थोडे दिनों के लिए है।

(थ) पहले वोटरषिप पर सेमिनार करके बुध्दिजीवी एकमत हाें (?)

       यह कि-''वोटरषिप पर संगोश्ठियों की राश्ट्रव्यापी श्रृंखला चलाई जायें, इसके बाद जब बुध्दिजीवी इस विशय पर एक मत हो जायें, तो संसद द्वारा इस कानून को बनाया जाये'' इस तर्क के आधार पर निम्नलिखित कारणोें से लोगों के जीने के अधिकार के इस साधन को विलम्बित नही किया जा सकता-

            (i)         यह कि गोश्ठी उस व्यक्ति, उस संगठन, उस समुदाय, उस दल की आवष्यकता है, जिसे वोटरषिप की बात को समझना हो। इसलिए गोश्ठी व सेमिनारों का सिलसिला चलाने का काम याचिकाकर्ताओं का नही है।

            (ii)         यह कि याचिकाकर्ता संगठन गत कई वर्श बुध्दिजीवियों के साथ विचार-विमर्ष, चिन्तन-मनन व सेमिनारों-जन सभाओं का सिलसिला चलाने के बाद ही मामले को संसद तक लाये हैं; इसलिए जो व्यक्ति डाक्टरेट की डिग्री ले चुका हो, उसे प्राइमरी स्कूल में फिर से पढ़ने की अपेक्षा करना गलत होगा। हाँ, किसी जिज्ञासू संगठन के द्वारा आयोजित किसी संगोश्ठी या जनसभा में प्रमुख्य याचिकाकर्ता अपना वक्तव्य मूल्यांकनार्थ रखने को तैयार हैं। इस विशय पर अब तक सम्पन्न संगोश्ठियों व जनसभाओें से परिचय के लिए इस याचिका के अध्याय-10.2 का अवलोकन करें। इन अनुभवों व संबन्धित साहित्य के अध्ययन के बाद ही गोश्ठी का औचित्य है।

            (iii)        यह कि लोकसभा में याचिका की योजना सेमिनारों व जनसभाओं से ही निकली। जब उ0 प्र0, बिहार, महाराश्ट्र, दिल्ली, राजस्थान, मध्य प्रदेष, उत्तारांचल, छत्तीसगढ, झारखण्ड, अादि प्रदेषों में वोटरषिप के मुद्दे पर कुछ संगोश्ठियों व जनसभाओं का आयोजन किया गया, तो आम जनमानस की ओर से यह बात पूंछी गई कि- ''वोटरषिप पर कानून बनाने का काम तो संसद का है, हमारे जनप्रतिनिधि वहाँ हमारे हितों का प्रतिनिधित्व करने के लिए ही गये हैं। अगर देषव्यापी जनसभाएं व गोश्ठियाँ करने में समय बर्बाद किया जायेगा, तो इस अवधि में विष्व व्यापार संगठन व आर्थिक सुधारों (?) द्वारा कारित आय के तंगी से तमाम उन लोगों की जान चली जायेगी, जिनकी जान वोटरषिप की रकम से बच सकती थी''। देषव्यापी गोश्ठियों जनसभाओं से निकले इस निश्कर्श को याचिकाकर्ताओं ने गम्भीर माना और जनसभाओं के साथ-साथ याचिकाकर्ता संगठन- ''आर्थिक आजादी आन्दोलन परिसघं का संसदीय प्रकोश्ठ'' खोलकर याचिका के माध्यम से लोकसभा को मामले से परिचित कराने की योजना बनाई गई, और कार्यान्वित किया गया।

            (iv)        यह कि देषव्यापी सेमिनारों व जनसभाओं से अनुभव किया गया कि वोटरषिप के प्रस्ताव पर धु्रवीकरण न तो जाति, न तो संप्रदाय, न तो भाशा, न तो क्षेत्र, न तो प्रदेष, न तो लिंग, न तो उम्र, न तो दल के आधार पर हो रहा है, अपितु इस प्रस्ताव पर धु्रवीकरण मानव के सूक्ष्म षरीर में संचरित एबी. व ओ. खूनों के धारकों के बीच हो रहा है। यहाँ तक कि पति-पत्नी इस विशय पर अलग राय रखते हैं, भाई-भाई इस विशय पर अलग राय रखते हैं। इसलिए सेमिनारों से कोई नया निश्कर्श निकलने की संभावना याचिकाकर्ताओं के लिए समाप्त हो चुकी है; इसीलिए अब यह मामला संसद का ही विशय बन चुका है।

            (v)         यह कि याचिकाकर्ता गोश्ठियों व जनसभाओं से इस नतीजे पर पहुँचे हैं कि बड़े व छोटे राजनैतिक दलों की सामाजिक व राश्ट्रीय भूमिका को देखते हुये, और सभी दलों में मौजूद वोटरषिप के समर्थकों व विरोधियों की मौजूदगी को देखते हुए, यह आवष्यक है कि सभी दलों की उपस्थिति भी बनी रहे, व वोटरषिप का प्रस्ताव भी कार्यन्वित हो जाये। ऐसा तभी हो सकता है जब कम्पनियों की तरह दलों का भी एक परिसंघ बने। इसलिये याचिकाकर्ताओं की रुचि सेमिनार करने की बजाय दलों का राश्ट्रीय, अंतर्राश्ट्रीय व वैष्विक परिसंघ बनाने में है; जिससे वैष्वीकरण की चुनौतियों का सामना किया जा सके।

            (vi)        यह कि वैचारिक विविधता समाज का मूल स्वभाव है, व विचारधारा का एक आनुवंषिक आधार होता है। हर विचारधारा के प्रवक्ता भी आनुवंषिक होते हैं। जिन्हें बुध्दिजीवी के नाम से जाना जाता है। चूंकि वे अलग-अलग विचारधाराओं की वकालत करते हैं, इसलिए ''बुध्दिजीवी मतैक्य'' जैसी कोई चीज होती ही नही, जिसकी तलाष किया जाये, इस तलाष में समय नश्ट किया जाये तथा आर्थिक तंगी से इस बीच लाखों लोगों को मौत के घाट उतारा जाये। मतवैभिन्य के आनुवंषिक व आघ्यात्मिक पक्ष को विस्तार से समझने के लिए इस याचिका के अध्याय-13 के साक्ष्य (1) का अवलोकन करें।

            (vii)       यह कि वोटरषिप का प्रस्ताव हर एक मतदाता को न्युनतम आथ्ीर्कि समता का अधिकार व उसका साधन प्रदान करता है। इसलिए इसे किसी एक जाति, पंथ, भाशा, क्षेत्र, लिंग, प्रदेष का पक्षपाती या किसी दूसरे का विरोधी नही कहा जा सकता। इसलिए यह राश्ट्रीय प्रस्ताव है, जो दलगत राजनीति से भी इसलिए ऊपर है, कि कौन सा दल अपने मतदाताओं को आर्थिक तंगी से मार डालना पंसद करेगा? चूंकि व्यवहार में ऐसी आर्थिक हिंसा स्वयं अपने को वोट देने वालों के खिलाफ कोई दल नहीं करेगा, इसलिए वोटरषिप के विशय में जनषिक्षण का कार्य वर्तमान संघ सरकार के सूचना व प्रसारण मत्रांलय का और स्वास्थय व मानव संसाधन मंत्रालय का है। उन विभागों व मंत्रालयों द्वारा, जिनके उद्देष्य पूरा करने में वोटरषिप के प्रस्ताव से मदद मिलती हैं, उन्हें सरकारी मषीनरी द्वारा संगोश्ठी व जनप्रषिक्षण के कार्यक्रम उसी तरह चलाना चाहिये, जैसे सरकार एड्स व पोलियो जैसी बीमारी के उन्मूलन के लिए जागरूकता के कार्यक्रम चलाती है। भरपूर मषीनी उत्पादन के वर्तमान युग में अब गरीबी असाध्य आर्थिक रोग नही रह गया है। इस याचिका में प्रदत्त सूचनाओं व विष्लेशणों से स्पश्ट है गरीबी अब मात्र लोगों के कुछ अंधविष्वासी मान्यताओं के कारण बनी हुई है। वोटरषिप के खिलाफ अधिकांष आपत्तियां इसी तरह के अंधविष्वासों की उपज है। सरकारी प्रचार माध्यम से इन अंधविष्वासों का मूलोच्छेदन करके गरीबी की समस्या का समाधान किया जा सकता है। अत: अगर सरकार वास्तव में देष के मतदाताओं का प्रतिनिधित्व करती है, तो उक्त अंधविष्वासों के उन्मूलन के लिए संबंधित मंत्रालयों को आदेषित करके उनको इस काम में लगाना चाहिए।

       उक्त पैरा (i) से (vii) तक की सूचनाओं व विष्लेशण से स्पश्ट है कि मात्र बुध्दिजीवियों में बहस के बहाने वोटरषिप जैसे प्राणरक्षक उपाय को टाला नही जा सकता।

(द) वोटरषिप के लिए चुनावों से जनादेष मांगा जाए (?)

       यह कि- ''मतदातावृत्तिा या वोटरषिप का कानून बनाने से पहले इस विधायी कार्य के लिए जनादेष लिया जाए'' - यह कहकर वोटरषिप के प्रस्ताव के कार्यान्वयन को निम्नलिखित कारणों से विलम्बित नही किया जा सकता -

            (i) यह कि किसी भी मुद्दे पर जब तक विधायन की सामान्य प्रक्रिया से कोई कानून बन सकता है, तब तक जनादेष लेने का औचित्य होता ही नही। जब सरकार विधेयक पेष करे, व पारित न हो, तो जनादेष का औचित्य बनता है। या जब किसी निजी विधेयक के पारित हो जाने से सरकार गिर जाए, तो सत्तााधारी पार्टी जनता की अदालत में जा कर यह कह सकती है कि गत चुनाव में उसकी पार्टी को जो जनादेष मिला था, निजी विधेयक के पारित हो जाने से उसका उल्लंघन हुआ है। यदि जनता वास्तव में जनादेष का उल्लंघन मानेगी तो उसी पार्टी को फिर से नवनिर्मित कानून को निरस्त करने के लिए सत्तासीन करेगी। संसद की कार्य प्रणाली को ध्यान में रखते हुए स्पश्ट है कि हर बात पर षौकिया जनादेष नहीं लिया जाता। जनादेष तो तब मिलेगा, जब संसद में पर्याप्त चर्चा हो चुकी हो, वर्तमान संसद से कोई नतीजा न निकल पा रहा हो, संसद की इस कवायद से जनता परिचित हो चुकी हो, व चुनावों में इस मामले में अपनी भूमिका महसूस करने लगी हो।

            (ii)    यह कि सरकार विधेयक पेष न करे, उसके पहले ही जनादेष लेने की बात को मान्यता देने से एक गलत परम्परा बनेगी, सरकारों में निकम्मापन बढेगा, सरकारें देष का व जनता का अस्तित्व बचाने की बजाय इन दोनों का अस्तित्व दांव पर लगाकर अपना अस्तित्व ही बचाने में लग जाएंगी। इस याचिका के बाद भी यदि वर्तमान सरकार वोटरषिप पर कोई विधेयक संसद में पेष नहीं करती, तो इस आरोप से वर्तमान सरकार भी बच नहीं सकती। अत: जनादेष लेने के बहाने से वोटरषिप के मामले को कुछ समय के लिए विलम्बित नहीं किया जा सकता।

            (iii)   यह कि वोटरषिप कोई साधारण मामला नहीं है। इससे हर महीने लाखों लोगों की प्राण रक्षा जुडी है। देष में आर्थिक तंगी, कुपोशण, दवाओं के अभाव से हर महीना लाखों लोगों की मृत्यु हो रही है, या लोग आत्महत्या करने के लिए मजबूर हो रहे हैैं। वोटरषिप की नियमित रकम इन लोगों की जान बचाने की औशधि है और यह जीने के अधिकार का साधन है। इस साधन से वंचित करने का मतलब जीवन से वंचित करना है। इस याचिका के लोकसभा में दाखिल होने पर भी वोटरषिप के विशय में यदि सरकार विधेयक पेष नहीं करती; तो याचिका के दाखिल होने के बाद आर्थिक तंगी से होने वाली मौतों व आत्महत्याओं की केवल नैतिक ही नहीं, दण्डात्मक दायित्व सरकार चलाने वालों को अपने ऊपर लेना होगा। यह नहीं हो सकता कि मषीनी हाथों से भरपूर उत्पादन के वर्तमान युग में भी लोगों की मौत पर धड़ियाली ऑंसू बहाएं, जनसंख्या कम करने की अपील करें, व देष को अमीर बनाने का ढिंढ़ोरा पीटें। जनादेष लेने की वकालत करने वालों को यह भी घोशित करना चाहिए कि इस प्रक्रिया में होने वाले विलंब की अवधि में होने वाली उक्त मौतों के बदले क्या वे स्वयं फांसी पर चढेंगे, या आजीवन कारावास भुगतेंगे? जनादेष के नाम पर जानबूझ कर विलंब किया जाता है तो विलंब करने वालों को आत्मदण्ड की घोशणा पहले करनी चाहिए; तभी उनकी लोकतांत्रिक ईमानदारी प्रमाणित हो पाएगी।

            (iv)   यह कि जनादेष की मांग करने वाले केवल वही लोग ईमानदार माने जा सकते हैैंैंं, जो सबसे पहले सरकार से विधेयक पेष करवाएं, यदि विधेयक पारित नहीं हो, तो बिना विलंब किये तत्काल चुनाव कराने की मांग करें।

            (v)    यह कि हर मुद्दे पर जनादेष मिल भी नहीं सकता। इसका कारण यह है किसी सांस्कृतिक सवाल पर तो जनादेष मिल भी सकता है, हर एक आर्थिक विशय पर जनादेष नहीं मिल सकता। इसकी मूल वजह राजनैतिक चन्दे में निहित जनादेष को निर्देषित करने की षक्ति है। वोटरषिप लागू होने से आम नागरिकों, श्रमिकों, किसानों - जैसे उन लोगों का वास्तविक लाभ है, जो पहले से ही पैसे से वंचित करके रखे गए हैं। जब इनके पास पैसा ही नहीं है तो ये वोटरषिप की आवाज उठाने वाले को चन्दा कहाँ से देंगे, और यदि चंदा नहीं दे सकते तो वोटरषिप के पक्ष को जनता के बीच प्रचार कौन करने जाएगा। जब प्रचार ही नहीं होगा, तो जो जनादेष मिलेगा, वह जनादेष नहीं, चंदा देने वालों का चंदादेष होगा।

            (vi)   यह कि एक नवगठित दल ने लोकसभा के 2004 के आम चुनावों में वोटरषिप के मुद्दे पर देष के पाँच राज्यों में कुल 28 उम्मीदवार चुनाव में उतारे। वोटरषिप के सवाल पर जनता में काफी उत्साह दिखाई पड़ा फिर भी सभी प्रत्याषी चुनाव हार गए, जिसका प्रमुख कारण प्रचार साधनों की कमी ही देखा गया। यह देखा गया कि जातीय व धार्मिक उन्माद के प्रचार के लिए देष के संपन्न लोग उत्साहपूर्वक चंदा देते हैं लेकिन वोटरषिप जैसे आर्थिक लोकतंत्र के साधनों के प्रचार के लिए स्वेच्छा से चंदा देने में कतराते हैैं। लोकसभा चुनाव-2004 का अनुभव साबित करता है कि यदि चुनाव में प्रत्याषियों के प्रचार का खर्च सरकार नहीं उठाती, तो चुनावी परिणाम जनादेष होने की बजाय चंदादेष ही होंगे, जनादेष होने की बजाय धनादेष होंगे। यानी जनादेष असली होने की बजाय नकली होगा।

            (vii)   यह कि चुनावों में वोटरषिप का प्रचार करने वाले प्रत्याषियों का खर्च यदि सरकार नहीं उठाती, तो चुनाव की बजाय जनमत संग्रह से ही असली जनादेष सामने आ सकता है। सबसे बेहतर स्थिति तो यह होगी कि देष के अधिकांष परिवारों में आ चुकी वित्ताीय आपदा को देखते हुए सबसे पहले संविधान के अनु0-352 के अंतर्गत वित्ताीय आपातकाल लागू किया जाए, फिर राश्ट्रपति षासन के अंतर्गत पूर्णत: सरकारी खर्चे पर वोटरषिप के मुद्दे पर जनमत संग्रह करवाया जाए, और यह सब तत्काल किया जाए, लोकसभा का कार्यकाल सामान्य तरीके से बीतने का इंतजार न किया जाए।

            (viii)   यह कि विकास के नाम पर अमीरों के भोग विलास की वकालत करने वाली मोटे चंदे से लबालब पार्टियाें और वोटरषिप जैसी गरीबों के जीने के अधिकार के साधन की वकालत करने वाली पार्टियों, गठबंधनों, पार्टी परिसंघों को यदि चुनाव के एक ही अखाड़े  में उतारा जाता है तो यह बेमेल लड़ाई होगी व खेल के मूल सिध्दांतों का उल्लंघन होगा। दस दिन से भूखे आदमी को जब हृश्ट-पुश्ट आदमी से लड़ने के लिए कुष्ती कराई जाएगी, तो दस दिन से भूखा आदमी हारेगा ही, लेकिन उसकी हार से उसकी कमजोरी का नतीजा निकालना गलत होगा। सरकार ने उत्ताराधिकार कानून से गुलाम व गरीब मतदाताओं की बडी फौज खड़ी कर रखी है।  चुनावी दंगल में जब अमीर पार्टियों से इनका मुकाबला होगा तो इनकी वकालत करने वाली पार्टियां संसाधनों के अभाव में पराजित हो सकती हैं। यह दंगल नहीं साजिष होगी, यह चुनाव नहीं नाटक होगा। चुनाव यदि आर्थिक जनापेक्षाओं को अभिव्यक्त करते तो वोटरषिप की जरूरत ही क्यों पडती? स्पश्ट है कि परंम्परागत चुनाव वोटरषिप के विशय में जनादेष अभिव्यक्त करने में सक्षम ही नहीं है, तो इस तरह के जनादेष के नाम पर वोटरषिप की विधायी प्रक्रिया को विलंबित करने का भी कोई औचित्य नहीं है।

            (ix)   यह कि हर दल में ए.बी. व ओ खून के लोग पदाधिकारी व कार्यकर्ता हैं। इसलिए हर दल में एबी व ओ संवेदी चेतना के लोग भी हैैं, जिनकी सूक्ष्म षरीर में एबी व ओ नामक खून बह रहा है। वोटरषिप के मुद्दे पर हर पार्टी के एबी खून वाले विरोध में उतरेंगे व हर पार्टी के ओ खून वाले पदाधिकारी समर्थन में उतरेंगे। अत: यह विशय दलों का धु्रवीकरण नहीं करेगा, अपितु पदाधिकारियों व कार्यकर्ताओं का धु्रवीकरण करेगा। हर दल में इस मुद्दे के समर्थक है, व हर दल में विरोधी हैैं। अगर मामला चुनावी दंगल तक ले जाया जाएगा तो हर पार्टी में टूट-फूट होगी। इससे हर पार्टी को गृह कलह का सामना करना पड़ेगा। चूंकि याचिकाकर्ता किसी भी दल में गृह कलह पैदा नहीं करना चाहते इसलिए चुनावी साधनों को प्राथमिकता देने की बजाय संसद की विधायी प्रक्रिया को प्राथमिकता दे रहे हैं। ए.बी. व ओ संवेदी चेतना (खून) के विशय में इस याचिका के अध्याय-एक पैरा-5,6 का संदर्भ ग्रहण करें।           

                उक्त पैरा (i) से (ix) तक के विष्लेशण से स्पश्ट है कि जनादेष लेने का तर्क तभी ठीक हो सकता है, जब सरकार संबंधित विधेयक संसद में पेष कर चुकी हो, मतदान हो चुका हो, विधेयक गिर चुका हो, या निजी विधेयक पारित होने से सरकार गिर चुकी हो। इन घटनाओं में से किसी एक के घटे बगैर जनादेष लेने का तर्क एक निरर्थक तर्क है।

(ध) समस्याओं का समाधान नही, दबाव बनाने की एक योजना (?)-

       यह कि वोटरशिप के प्रस्ताव को निम्नलिखित कारणों से दबाव बनाने की योजना मात्र के रूप में नही माना जा सकता -

            (i) यह कि लोकतंत्र में दबाव समूह काम करते ही हैं, इसे लोकतंत्र में गलत नही माना जा  सकता। सरकारी कर्मचारियों के संगठन, उद्योगपतियों के संगठन, विश्व व्यापारियों के संगठन, हर शहर-बाजार में फैले व्यापारियों के संगठन, विविध जातियों व सांप्रदायों का वकालत करने वाले राजनैतिक दल दबाव समूहों के ही उदाहरण हैं। यदि गरीब मतदाताओं का इस तरह का कोई दल या संगठन बनता है तो इसमें नयापन कुछ नही माना जा सकता और कुछ गलत भी नहीं माना जा सकता।

            (ii) लोकतंत्र में राज्य के फैसले बहुत कुछ दबाव समूहों पर ही निर्भर करते हैं, यदि गरीब मतदाता भी संगठित होकर राज्य के फैसलों को प्रभावित कर सकें, तो राज्य का फैसला अधिक लोकतांत्रिक गुणों वाला हो जाएगा। इसलिए संभावित नया दबाव समूह निंदा का विषय नही, स्वागत का विषय है।

            (iii)   यह कि उद्योगपतियों - व्यापारियों के दबाव समूह से प्रभावित होकर काम करना ठीक माना जाये, व गरीब मतदाताआें के दबाव समूह को जन्म लेते हुए देखना भी ठीक न माना जाए, तो ऐसा राज्य निश्चित रूप से न्याय करने वाला राज्य नहीं, पूंजी धारकोें के अन्याय की रक्षा करने वाला राज्य ही कहा जाएगा। अगर गरीब मतदाताओें के दबाव समूह को बनने में राज्य सहयोग नही करता तो हर न्यायप्रिय नागरिक का फर्ज बन जाएगा कि ऐसे अन्यायी शासन को उखाड़ फेकने के लिए जो कुछ संभव हो सब करे कम से कम ऐसे राज्य के आदेशों का असहयोग व अवज्ञा अवश्य करे।

            (iv)   यह कि वोटरशिप के प्रस्ताव को मात्र गरीबों को संगठित कर एक दबाव समूह बनाने का तरीका ही नही समझना चाहिए। वास्तव में यह विश्व अर्थव्यवस्था की निर्माण प्रक्रिया में उजड़ने वालों द्वारा आत्मरक्षा में राज्य के सम्मुख लगाई गई तकनीकी गुहार है, जो अपनी दर्द व दवा दोनों की अभिव्यक्ति कर रहा है।

            (v)    यह कि जब राज्य इतना संवेदनहीन हो जाता है कि नागरिकों के करूण-क्रंदन को दबाव बनाने की उनकी शाजिश मानने लगता है, तो राज्य संचालक अध्यात्मिक सत्ताा ऐसे राज्य से अपना संबंध विच्छेद कर लेती है। परिणाम होता है क्रांति या व्यवस्था परिवर्तन। राजव्यवस्था व अर्थव्यवस्था के परिवर्तन के इतिहासबोध का तकाजा है कि वोटरशिप के प्रस्ताव को नागरिकों की आत्मरक्षा की आवाज माना जाये, दबाव बनाने की साजिश नही।

             उक्त बिंदु (i) से (v) तक के विश्लेषण से भाषित होता है कि वोटरशिप के प्रस्ताव को केवल असंगठित क्षेत्र के गरीब लागों का दबाव समूह बनाने की साजिश नही कहा जा सकता, व यदि ऐसा दबाव समूह बनता है तो लोकतांत्रिक मूल्यों की वृध्दि होगी, लोकतंत्र में आस्था रखने वालों का प्रतिशत बढेग़ा, राज्य का लोकतांत्रिक गुणांक बढ़ेगा।

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