Votership


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खण्ड-तीन

अध्याय चार

माक्र्सवाद और वोटरषिप                      

      1. वोटरषिप को वामपंथियों की नई रणनीति मानने वालों की आषंकाएं

      (क) वोटरषिप भी माक्र्सवाद ही है, जो फेल हो गया (?)

 ·  पूंजीपति व पूंजीवादी अलग-अलग लोग हैं

 · आर्थिक न्याय के संघर्श के केन्द्र में अब मजदूर की बजाय मतदाता

(ख) कम्युनिस्ट क्रांति निश्फल हो गई, वोटरषिप से भारत का रूस जैसा

      हस्र होगा (?)                      

 

मार्कसवाद व वोटरषिप

 

1. वोटरषिप को माक्र्सवादियों की नई रणनीति मानने वालों की आषंकाएं

(क) वोटरषिप भी माक्र्सवाद ही है, जो असफल हो गया &

       यह कि आर्थिक न्याय व गरीबी उन्मूलन के दो उपायों- माक्र्सवाद व वोटरषिप को निम्मलिखित कारणों से एक नही समझा जा सकता-

                (i)            यह कि माक्र्सवाद पूर्ण आर्थिक समानता का लक्ष्य पाना चाहता है। जबकि वोटरषिप का प्रस्ताव न्युनतम आर्थिक समता का लक्ष्य प्राप्त करने का उपाय है।

                (ii)           यह कि आर्थिक न्याय के लिए मर्ाक्सवाद गरीबों की तानाषाही आवष्यक मानता है। जबकि वोटरषिप के प्रस्ताव के पीछे मान्यता यह है कि राजनैतिक लोकतंत्र के नाम से चल रही अमीरों की तानाषाही केवल उसी दषा में गलत हो सकती है, जब पूंजीवादी लोग न्युनतम आर्थिक समानता का वोटरषिप का यह प्रस्ताव भी ठुकरा दें।

                (iii)         यह कि पूंजी के धारकों को ही आधिकांष मर्ाक्सवादी लोगों द्वारा ''पूंजीवादी'' मान लेने की धारणा चल पड़ी है। जबकि वोटरषिप के सिध्दांतकारों का निश्कर्श यह है कि पूंजी के फीते से किसी व्यक्ति की योग्यता मापना कुछ लोगों का जन्मजात गुण होता है। ठीक वैसे ही जैसे कुछ लोग अन्य लोगों का मूल्यांकन सौन्दर्य से करते है, कुछ लोग बाहुबल से करते है, कुछ लोग ज्ञानबल से करते है, कुछ लोग जनबल से करते है। चूकि पूंजी के फीते से मूल्यांकन करने वाले लोग गरीब परिवारों में भी पैदा होते है, इसलिए सभी अमीर लोगों को पूंजीपति तो कहा जा सकता हैं, पूंजीवादी नही। जबकि आर्थिक क्रूरता पूजीपति को पसंद नही होती, पूंजीवादी को पसंद होती है- जो गरीबी के स्थायित्व का कारण है।

                (iv)          यह कि माक्र्सवादी लोग राज्य को सम्पति का मूल स्वामी मानते है, पूंजीवादी लोग पूंजीपति को सम्पत्तिा का मूल स्वामी मानते है। जबकि आर्थिक लोकतंत्र व वोटरषिप के सिध्दांतकार राश्ट्र के मतदाताओं को सम्पति का मूल स्वामी मानते हैं।

                (v)            यह कि माक्र्सवादी लोग कारखाने के मजदूरों को केन्द्र में रखकर आर्थिक न्याय का तानाबाना बुनते है, जबकि वोटरषिप के सिध्दांतकार मतदाता को केन्द्र में रखते है। वोटरषिप के सिध्दांतकारों का विष्लेशण यह है कि 18वीं षताब्दी में युरोप की जिस जमीन में माक्र्सवाद का जन्म हुआ था, उस समय उत्पादन का मुख्य कार्य कारखाने के मजदूरों से सम्पादित होता था। उनके ऊपर हो रहा आर्थिक जुल्म किसी भी संवेदनषील व्यक्ति के लिए असहृय था। इसलिए मजदूरों की तानाषाही को उपाय के रूप में अपनाया गया, जो उस समय की चुनौतियों व परिस्थितियों को देखते हुए सही था। माक्र्सवाद के बढ़ने के साथ-साथ कारखानों में हड़ताल की प्रवृति बढ़ी। जहां मर्ाक्सवादी षासन नही भी पहुंचा, वहां हड़ताल की घटनायें पहुंच गई। इसका परिणाम यह हुआ कि संपूर्ण विष्व की उत्पादन षक्तियों ने मानव विहीन आटोमेटिक उत्पादन तकनीकि खोजने  व उसे अपनाने में पूरी ताकत झोंक दी। लगभग 100 वर्शो में अर्थव्यवस्था की तस्वीर बदल गई। लगभग हर क्षेत्र में उत्पादन करने की जिम्मेदारी मजदूराें को हटाकर मषीनों ने अपने कन्धों पर उठा लिया। इसका परिणाम हुआ- अति सस्ती लागत पर अति उत्पादन। अति उत्पादन जब ख्स जैसे देष में पहुंचा, तो वहां की जनता में सस्ती व अच्छी चीजें देखकर लार टपक पड़ी और खुलेपन के नाम से मर्ाक्सवाद से वापसी की एक हवा चल पड़ी। मषीनों की संख्या जैसे-जैसे बढ़ती गई, वैसे-वैसे लोग अश्रमिक होते गये। संगठित क्षेत्र में श्रमिकों की संख्या गिरने लगी और गिरते-गिरते इतनी कम हो गई कि संगठित व सरकारी क्षेत्र के श्रमिक अल्पसंख्य हो गये। जब बहुसंखयक लोग श्रमिक ही नही रहे, तो आर्थिक न्याय का तानाबाना श्रमिक को केन्द्र में रखकर बनाते रहने का औचित्य भी समाप्त होता गया। आर्थिक न्याय के सुरक्षा घेरे से कोई भी बाहर न रह जाये, इसीलिए वोटरषिप के सिध्दांतकारों ने मजदूरों की बजाय मतदाताओं को केन्द्र में रखकर आर्थिक न्याय व आर्थिक आजादी का ताना-बाना बुना।

                (vi)          यह कि मषीन ने पूरे अर्थषास्त्रीय सिध्दांत व आर्थिक न्याय के सिध्दांतों को उलट-पलट कर रख दिया है, जिस पर अभी पर्याप्त चिंतन नही हो सका है। माक्र्सवाद यदि पैदा न होता तो पूजीपति व पूंजीवादी दोनों तरह के लोग संभवत: अभी तक मजदूरों को बैल की तरह खटाते रहते, व उनसे होने वाले थोड़े से उत्पादन में मुनाफेखोरी की संभावनायें टटोलते रहते। औद्योगिक इकाइयों को हड़ताल की त्रासदी से बचाने के लिए पूंजीपतियों ने मषीनों के अनुसंधान पर ध्यान दिया। और इस प्रतिक्रिया में मषीनों का आविश्कार व प्रसार तूफानी गति से हुआ। मषीनों की वजह से मजदूरों को अमानवीय श्रम से पैदा हुई तरल सम्पति के वितरण की कोई व्यवस्था कायम की गई रहती। तो मषीन का लाभ श्रमिकों को भी मिल पाता ।  ऐसा न होने से ही मषीन श्रमिकों के लिए वरदान बनने  की बजाय अभिषाप बन गई। उन्हें बेरोजगार कर दिया तथा न्युनतम मजदूरी कानून के बावजूद नियोक्ता के फर्जी एकाउण्ट रजिस्टर में उसे अपनी बर्बादी के बाउचर पर दस्तखत करने पड़े। वोटरषिप इन मजदूरों को अब पुन: श्रम की सौदेबाजी का अवसर दे देगी। वोटरषिप के सिध्दांतकार इस नतीजे पर पहुंचे है कि मषीनों ने मजदूर की तानाषाही को आत्मधाती बना दिया है, जबकि बहुत से माक्र्सवादी आज भी मजदूर की तानाषाही को अपना साधन मानते है।

                (vii)         यह कि मर्ाक्सवादी राजव्यस्था व वोटरषिप के सिध्दांतकारों द्वारा प्रस्तावित राजव्यवस्था के अंतर को समझने के लिए कार्यान्वयन संबंधी इस याचिका के अध्याय -9.3  का संदर्भ ग्रहण करें।

       उक्त विन्दु  (i) से  (vi) के आधार पर स्पश्ट है कि वोटरषिप के प्रस्ताव को ''माक्र्सवादी फार्मूला ही'' बताकर खारिज नही किया जा सकता। दोनों के साध्य भले ही एक हों, दोनों के साधन अलग-अलग हैं।

(ख) कम्युनिस्ट क्रांति असफल हो गई, वोटरषिप से भारत का रूस जैसा हस्र होगा?

       वोटरषिप का प्रस्ताव मानने पर भारत का रूस जैसा हस्र बताना, व कम्युनिश्ट क्रांति को निश्फल बताना निम्नलिखित कारणों से एक अज्ञानतापूर्ण टिप्पणी है-

                (i)            यह कि कोई भी आन्दोलन यदि चल पड़ा, इतना ही उसकी सामाजिक उपयोगिता का प्रमाण होता है। यदि उसने अपना घोशित लक्ष्य भी पा लिया, तो वह उसकी अतिरिक्त उपयोगिता होती है। कम्युनिश्ट क्रांति को क्रांति भी कहना, फिर उसे असफल भी कहना साबित करता है कि ऐसी टिप्पड़ी करने वाला आंदोलन के विज्ञान से अपरिचित है।

                (ii)           यह कि कम्युनिश्ट क्रांति की प्रतिक्रिया में कल्याणकारी राज्य का जन्म हुआ, जिसका लाभ लगभग पूरा संसार उठा रहा है। इसके लिए पूरा संसार कम्युनिश्ट क्रांति का ऋणी हैं। इसलिए यह कहना गलत है कि कम्युनिश्ट क्रांति ने कुछ नही दिया।

                (iii)         यह कि कम्युनिश्ट आंदोलनों-हड़तालों की प्रतिक्रिया में ही मषीनों का आविश्कार व प्रसार संभव हुआ। संसार की आज की संवृध्दि में अधिकांष हिस्सा मषीनों का है। इस संवृध्दि के लिए पूरा संसार कम्युनिश्ट आंदोलन का ऋणी है।

                (iv)          यह कि जिन देषों ने माक्र्सवादी षासन व्यवस्था नही भी अपनाया, उन्होंने भी माक्र्सवाद की प्रतिंक्रिया में कर्मचारी भविश्य निधि जैसी तमाम योजनायें अपना लिया। पूरे संसार के फण्ड आफिस कम्युनिश्ट क्रांति की ही देन हैं।

                (v)            कम्युनिश्ट क्रांति के कारण ही एक आम आदमी भी इतिहास में जगह पा सका। इतिहास राजाओं की वंषज गाथा की बजाय मानव जाति की गाथा बन सका। कम्युनिश्ट क्रांति के कारण ही पहली बार राजघरानों व औद्योगिक घरानों ने स्वीकार किया कि श्रमिक की षरीर में भी सूई चुभोने से दर्द होता है। कम्युनिश्ट क्रांति के पहले तो औद्योगिक घरानो के लिए श्रमिक वैसा ही था, जैसा अंधविष्वासी मुसलमानों के लिए बकरे होते हैं।

                (vi)          पैरा-(i) से (v) तक के निश्कर्शों से यह साबित होता है कि कम्युनिश्ट क्रांति निश्फल नही गई, और अध्याय - 4(क) से साबित होता है कि वोटरषिप का प्रस्ताव रूस जैसी राजव्यवस्था व अर्थव्यवस्था का समानार्थी नही है। इसलिए वोटरषिप के प्रस्ताव से रुस के हस्र को जाड़ना बिना सिर-पैर की बात करने जैसा है।

       उक्त बिन्दु  (i) से  (vi) तक के विष्लेशण से स्पश्ट है कि कम्युनिश्ट क्रांति के निश्फल होने का निश्कर्श और वोटरषिप के प्रस्ताव को मान लेने से भारत की दषा रूस जैसी हो जाने का मूल्यांकन आषंका निर्मूल है। इसलिये स्वीकार नही किया जा सकता।

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