Votership


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खण्ड-तीन

अध्याय - पाँच

5.     अंतर्राश्ट्रीय परिस्थितियां और वोटरषिप      

         1.   संसार का अनोखा प्रस्ताव (?)                         

         2.  मजदूरों की मजदूरी बढ़ जायेगी, भुगतान संतुलन

         गड़बड़ा जायेगा?                            

      3.    विदेषी पूंजी आना बन्द हो जायेगी (?)                               

 ·  विदेषी पूंजी कर्ज में बदल सकती है

 ·  निवेष केवल देष का नहीं, विदेषी निवेषकर्ता का भी स्वार्थ

 · देषी व विदेषी पूंजीपति में अन्तर

 · विदेषी पूंजी देष नहीं, विष्वव्यापारियों की भलाई के लिये है

 ·  देषी पूंजी का सदुपयोग विदेषी पूंजी का विकल्प

 

अंतर्राश्ट्रीय परिस्थितियॉ और वोटरषिप

 

1. संसार का अनोखा प्रस्ताव -

       वोटरषिप का प्रस्ताव दुनिया के किसी देष में प्रचलित नही है, इस विशय में विस्तार से जानने के लिये याचिका के अध्याय - 3(ज) का संदर्भ ग्रहण करें।

2. मजदूरों की मजदूरी बठ जाएगी, भुगतान संतुलन गड़बड़ा जाएगा         यह कि -''वोटरषिप पाने से मजदूर अपनी मजदूरी का रेट बढ़ा देंगे, इसका परिणाम होगा-उत्पादन लागत में वृध्दि और इससे निर्यात भी कमजोर पड़ जायेगा। भारत सरकार पर कर्ज बढ़ने लगेगा, भुगतान संतुलन गड़बड़ा जायेगा''- इस आषंका को निम्नलिखित कारणों से स्वीकार नही किया जा सकता-

                (i)            यह कि उत्पादन लागत का सम्बन्ध केवल मजदूर की मजदूरी से ही नही होता, अपितु पूंजी के किराये से होता है, मषीन के किराये से होता है, कम्पनी के प्रषासनिक खर्चे से होता है, सामान या सेवा की बिक्री में लाभ के प्रतिषत से होता है... आदि। यदि पूंजी के स्वामी अपना ज्यादा से ज्यादा किराया वसूलना चाहते हाें, वे राश्ट्र के भुगतान संतुलन की चिन्ता न करें। यदि मषीन के मालिक मषीन का ज्यादा से ज्यादा किराया वसूलते हों, वे देष के कर्ज की चिंता न करें। यदि कम्पनी के प्रबंधक और प्रषासनिक अधिकारी अनाप-सनाप पैसा खर्च करते हों - जहां स्कूटर से जा सकते हों, वहां बेमतलब खाली कार ले जाते हों। जहां रेल से जा सकते हाें, वहां बेमतलब हवाई जहाज की सैर करते हों। ये लोग देष की चिंता न करें। तो फिर देष का सारा कर्ज उतारने का बोझ श्रमिकों के कंधे पर ही डालकर क्यों रखना चाहिए? क्या यह उनके साथ आर्थिक बलात्कार नही है? चूंकि भुगतान संतुलन बिगड़ने की आषंका के पीछे कोई नैतिक बल नही हैं, इसलिए इसे स्वीकार नही किया जा सकता।

                (ii)           यह कि वोटरषिप का प्रस्ताव केवल उसी दषा में नकारा जा सकता है- जब पूंजी का किराया लेने वाले, मषीन का किराया लेने वाले, जमीन का किराया लेने वाले, कम्पनी का प्रबंधन करने वाले, कम्पनी का प्रषासन देखने वाले व सरकारी षासन-प्रषासन का कार्य देखने वाले- सभी लोग अपनी रहन-सहन का खर्च स्वयं इतना नीचे गिरा लें, कि वह रकम प्रति व्यक्ति औसत क्रयषक्ति रेखा के नीचे आ जाये। यदि वायुयानों की फिजूलखर्ची चलती रहे, यदि एअरकण्डीषनर की फिजूलखर्ची चलती रहे, यदि मकानों के एलीवेषन व संगमरमर की फिजूलखर्ची चलती रहे -तो वोटरषिप की खिलाफत करके मजदूर की केवल भरपेट रोटी को फिजूलखर्ची नही कहा जा सकता।

                (iii)         यह कि आज की मूल्य निर्धारण प्रणाली में 10 रुपये लागत की सामान की कीमत 200 रुपये रख दी जाती है। अगर श्रमिकों के साथ-साथ अन्य लोग भी, जो उत्पादन व वितरण प्रक्रिया से जुड़े है, अपने निजी खर्चे पर अंकुष लगायेंगे तो मात्र वोटरषिप के कारण भारत से निर्यातित होने वाली सामाने इतनी मंहगी नही हो सकती, कि अंतर्राश्ट्रीय बाजार में उनकी कीमत ज्यादा दिखाई दे। जमीन, मषीन, पूजीं, मुनाफाखोरी पर सवाल न उठाकर केवल मजदूरों की मजदूरी पर ही सवाल उठाना व उस पर अंकुष लगाना चूंकि निश्पक्ष चिंतन नही है। इसलिये यह तर्क स्वीकार नही किया जा सकता।

                (iv)          यह कि अगर औसत क्रयषक्ति की आधी रकम से ज्यादा कीमती रहन-सहन को गैर कानूनी घोशित करके इससे ऊपर जीवनयापन करने वाले लोगों पर लगाम लगा दिया जाये, तो वोटरषिप के प्रस्ताव का औचित्य भी समाप्त हो सकता है, क्योंकि तब राश्ट्र सेवा का आर्थिक भार सभी नागरिकों पर बंट जायेगा।

                (v)            जो व्यक्ति उपभोग की राश्ट्रीय परिधि मानने को तैयार न हो, उसे भी देष की नागरिकता देने का चार मतलब हो सकता है। पहला यह कि देष में ये लोग षरणार्थी है। दूसरा यह कि ये लोग व्यापार करने के उद्देष्य से देष में आकर बसे विदेषी नागरिक है। तीसरा यह कि देषी नागरिकों को आर्थिक गुलाम बनाकर रखने वाले ये लोग देषी सामंत है। चौथा यह कि भारत के नागरिक होने की बजाय ये लोग भारत जैसे कई देषों के साझा व बहुराश्ट्रीय नागरिक हैं- इसलिए भारत के भुगतान संतुलन को बनाये रखना इनकी प्राथमिकता नही है।

                (vi)          औसत क्रयषक्ति से ज्यादा कीमत में गुजर-बसर करने वाले समस्त कथित भारतीय नागरिंकों को देष के भुगतान संतुलन की चिंता नही है। तो यह चिंता केवल देष के मजदूर नागरिकों पर ही थोपने का कोई कारण नही है। यदि औसत क्रयषक्ति से ऊपर का उपभोग करने वाले नागरिक भारतीय नागरिक होने की बजाय बहुराश्ट्रीय नागरिक हैं तो मजदूरों की नागरिकता को भी बहुराश्ट्रीय नागरिकता का दर्जा दे देना न्यायिक कार्यवाही का तकाजा है। यदि अन्य उपभोक्तावादी नागरिकों की तरह मजदूर भी बहुराश्ट्रीय नागरिक हैं तो देष के भुगतान संतुलन के लिए अपनी रोटी त्यागने की जिम्मेदारी उनकी बनती ही नही। यदि देष के लिए त्याग का दायित्व मजदूरों का भी नही है तो वोटरषिप के प्रस्ताव की खिलाफत करने का कोई औचित्य ही नही है। नागरिकता के वर्गीकरण के विशय में विस्तृत जानकारी के लिये इस याचिका के अध्याय -9.2, संलग्नक 7, अध्याय -9.2 का संदर्भ ग्रहण करें।

                (vii)         यह कि जब उपभोग की राश्ट्रीय परिधि के हिसाब से भारत के नागरिक कहे जाने वाले सभी अमीर लोग भारतीय नागरिक नही है। जब वोटरषिप लेने के प्रस्ताव के समर्थन में होने के कारण भारत का समस्त श्रमिक समुदाय भारत के नागरिक नही रह जायेंगे। अगर इन दोनों की जनसंख्या जोड़े तो यह संख्या लगभग 45 करोड़ हो जाती है। क्याेंकि लगभग 40 करोड़ लोग असंगठित क्षेत्र में श्रमिक हैं व लगभग 5 करोड़ लोगों का परिवार उपभोग की राश्ट्रीय परिधि से ऊपर है। भारत के मतदाताओं की कुल संख्या लगभग 68 करोड़ है। इस प्रकार देखें तो राश्ट्रीयता की आर्थिक आचार संहिता का पालन करने वाले भारत में कुल 23 करोड़ लोग है। 68 करोड़ की तुलना में यह संख्या 33 प्रतिषत ही है। अगर दायित्वों का वितरण करें तो भारत के इन 33 प्रतिषत लोगों पर देष का कर्ज भी 33 प्रतिषत ही है। अगर आर्थिक नागरिकता को राजनैतिक नागरिकता से पृथक कर दिया जाये तो भारत पर केवल तिहाई कर्ज ही रह जायेगा व भुगतान संतुलन की समस्या भी हल हो जायेगी। क्योंकि उपभोग की राश्ट्रीय परिधि में रहने वालों के लिए जब आयात ही बहुत कम करना पड़ेगा; तो उस आयात के बदले निर्यात की जरुरत ही बहुत कम  पड़ेगी। स्पश्ट है कि चूंकि भुगतान संतुलन की समस्या पैदा करने वाले वे लोग है जो उपभोग की राश्ट्रीय परिधि तोड़कर अधिक उपभोग कर रहे है। अत: इन लोगों की गलती की सजा मजदूर वर्ग को क्यों दी जानी चाहिए, जो उपभोग की राश्ट्रीय परिधि के अंदर जीवन-यापन कर रहा ह। चूंकि वोटरषिप का अधिकार न देने से श्रमिकों को बिना कुसूर आर्थिक दण्ड मिल रहा है, इसलिए भुगतान असंतुलन की आषंका मात्र से वोटरषिप का प्रस्ताव खरिज नही किया जा सकता।

       उक्त बिन्दु (i) से (vii) की सूचनाओं, तर्को, विष्लेशणों तथा निश्कर्शों के आधार पर साबित होता है कि भुगतान असंतुलन की आषंका मात्र पर वोटरषिप के प्रस्ताव को अस्वीकार्य नही किया जा सकता।

3. विदेषी पूंजी आना बंद हो जाएगी -

       ''यह कि पूजी के मुनाफे पर अंकुष को देखकर विदेषी पूजीपति भारत में आने की बजाय किसी अन्य देष मे जायेंगे'' - इस तर्क के आधार पर वोटरषिप का प्रस्ताव निम्नलिखित कारणों से खारिज नही किया जा सकता-

                (i)            यह कि विदेषी पूंजी का इतना आग्रह वही व्यक्ति कर सकता है, जो अवचेतन मे स्वंय को इसका स्वामी समझता हो। जैसे एक बैंक का स्वामी बैक में जमा ग्राहकों के धन को अपना मानने लगे। उसी प्रकार की गलतफहमी यह है कि विदेषी पूंजी अपनी पूजी हैं। यह विदेषी पूंजी का अधिमूल्यन दोश है, इसलिए वोटरषिप प्रस्ताव के खिलाफ यह तर्क स्वीकार्य नही हो सकता।

                (ii)           यह कि ऋण लेकर घी पिलाने की आदत नागरिकों में डालना एक खतरनाक घरेलू प्रबंधन है, जो घर को ही तोड़ देगा। वजह यह है कि विदेषी पूंजी लगाने वाला पूंजीपति अपनी पूंजी की सुरक्षा व अधिक से अधिक मुनाफाखोरी के लिए घरेलू मामलों में दखल देना षुरु करेगा। एक सीमा के बाद जब उसकी दखल असहनीय हो जायेगी तो घरेलू प्रबंधक उसके सामने इससे ज्यादा झुकने से इनकार कर देंगे, वह झटपट अपनी पूंजी लेकर दूसरे देष भाग जायेगा। इस अवधि में देष के जिन नागरिकों को कम पैसा खर्च करके भी विलासिता का अवसर मिल गया था, वे सभी घरेलू प्रबंधकों के सामने उपभोक्ता अधिकार के नाम पर मुष्किल खड़ी करेंगें। इससे एक घरेलू अराजकता पैदा होगी। चूंकि विदेषी पूंजी का दूरगामी असर देष के लिए खतरनाक है, इसलिए इस खतरे का पालन-पोशण संभव बनाने के लिए वोटरषिप के प्रस्ताव को नामंजूर नही किया जा सकता।

                (iii)         यह कि विदेषी पूंजी को विदेषी कर्ज में बदल जाने का खतरा हर समय मौजूद रहता है। क्योंकि विदेषी पूंजीपति जो निवेष देष के अन्दर करता है, अगर नाराज होकर उसे वापस ले जाने लगे, तो कई जगह पैसा फंसे होने के कारण सरकार उसके निवेष की रकम का कुछ हिस्सा देष में रोंकने का निवेदन कर सकती है। यह रकम विदेषी कर्ज में तब्दील हो जायेगी और इस रकम के कारण विदेषी ब्याज के नीचे दबी सरकार और भी रसातल मे चली जायेगी। स्पश्ट है कि चूंकि वोटरषिप के प्रस्ताव की खिलाफत करने से देष के सामने कर्ज का संकट पैदा होगा-इसलिए इस प्रस्ताव की खिलाफत स्वीकार्य नही की जा सकती।

                (iv)        यह कि विदेषी पूंजी अपने देष में लाना केवल देष की सरकार का स्वार्थ ही नही होता, पूंजी लेकर आने वाले का भी स्वार्थ होता है। अगर पैसा बैंक में न जमा किया जाये, तो क्या वह हर महीना ब्याज की दर से बढ़ेगा? नही बढ़ेगा। पैसा बढ़ता है, पैसे के मालिक के अलावा अन्य लोगों के परिश्रम करने से। क्योकि परिश्रम करने से उत्पादन होता है। यही उत्पादन मूलधन को बढ़ाता है। दुनिया में तीन तरह के देष हैें। एक वे देष जहां पैसे को उद्योगों में लगाने की गुजाइष ही लगभग न के बराबर है। विकसित देष इसी श्रेणी में आते है। एक वे देष जिनके देष में विदेषी पूंजीपति पैसा लगा दें तो वे पैसे की बेइमानी करके उन्हें वापस करने से मना कर सकते हैं। तमाम अविकसित देष इसी श्रेणी में आते है। तीसरे वे देष जिनमें कर्ज को वापस करने की इमानदारी व सरकार की अति विनम्रता सुलभ होती है। भारत जैसे थोड़े से विकासषील देष इसी तीसरी श्रेणी में आते हैं। सरकार की अतिषय विनम्रता, यहां तक कि कायरता की हद तक की विनम्रता, और नागरिको में अपना षोशण करवाने की हद तक की इमानदारी का दुरुपयोग करके विदेषी पूंजीपति यहां के लोगों से मेहनत करवा के अपनी पूंजी बढ़ाना चाहते हैं। भोले, भाले, इमानदार व विनम्र लोग बिना सोंचे-समझे बैल की तरह जुए में जुत जाते हैं और विदेषी किसान को अन्न पैदा करके दे देते है। विदेषी किसान अन्न को बाजार मे बेंचकर खेत में लगाई अपनी रकम से इतना ज्यादा मुनाफा कमा लेता है कि उतना मुनाफा उसे न तो किसी बैंक में यह रकम जमा करने से मिलता, न तो किसी देष में निवेष करने से मिलता। इस विष्लेशण से स्पश्ट है देष के लोग परिश्रम करके विदेषी पूंजी के सहारे एक ऐसे विदेषी पूंजीपति को और ज्यादा अमीर बनाते है, जिसको केवल अधिकार ही अधिकार प्राप्त हैं, देष के नागरिकों के प्रति किसी तरह कार् कत्ताव्य निभाने से वह मुक्त है। चूंकि विदेषी पूंजीपति सामाजिक उत्तारदायित्वों से पूरी तरह से मुक्त है, इसलिए विदेषी पूंजीपति की अमीरी बढ़ाने के लिए देष के गरीबों को काम करने को बाध्य करना विदेषी पूजीपति की गुलामी करने के लिए बाध्य करना है। चूंकि वोटरषिप की रकम सरकार के पास रुक जाने से देष के नागरिकों के सामने ऐसी बाध्यता पैदा हो रही है। इसलिए वोटरषिप के प्रस्ताव की खिलाफत को स्वीकार नही किया जा सकता।

                (v)            यह कि देषी पूंजीपति और विदेषी पूंजीपति दोनों देष के पूंजी विहीन नागरिकों के साथ व्यवहार में बैल जैसा ही बर्ताव करते है, क्याेंकि दोंनो अपना मुनाफा नागरिको में वितरित नही करते। व्यवहार में दोनों के बीच समानता होने के बावजूद सिध्दांत रूप में दोनो में अन्तर हैं। देषी पूंजीपति की जो सम्पति देष में है, देष के नागरिक अपनी सरकार के सहारे आपातकाल में उसका उपयोग कर सकते है। देष की पूंजी का ज्यादा विवेकषील उपयोग करने की आषा में ही यह पूंजी देष के लोग उनके पास छोड़ रखते हैं। विदेषी पूंजीपति की न तो विदेष स्थित सम्पति का ही और न तो देष के अंदर स्थित सम्पति का ही आपदाकाल में जनोपयोग संभव हैं। देषी पूंजीपति के ऊपर आयकर जैसे दायित्व डालकर उनके उद्यम के कारण अन्य नागरिकों को हुई क्षति की भरपाई की जा सकती है, किन्तु विदेषी पूंजीपति पर यह दायित्व डालना मुष्किल काम  है। विदेषी पूंजीपति समाज के नियंत्रण से बाहर जा चुके कुछ ऐसे लोग हैं जो अपने देष में यह कह कर आयकर नही देते कि हमने यह मुनाफा दूसरे देष में उद्योग लगाकर कमाया। जिस देष मे उद्योग लगाते है उस देष को यह कहकर आयकर देने से मना कर देते है कि आयकर की जिम्मेदारी मेरे ऊपर डालोगें तो तुम्हारे देष से पैसा निकालकर भाग जाऊंगा। विदेषी पूंजीपति जिस देष का मूल नागरिक है, उस देष के साथ छल करता है। वह जिस देष में उद्योग लगाता है उस देष को ब्लैकमेल करता है।

       जिम्मदारियों से मुक्त इस विदेषी पूंजीपति को देखकर देष के पूंजीपति भी उनकी नकल कर रहे हैं। वे देष की सरकार को यह कह रहे है, कि उन पर आयात कर, आयकर जैसे दायित्वों को षून्य किया जाये। अन्यथा वे देषी पूंजी को ले जाकर विदेष में लगा देंगे। विदेषी सरकार उन पर न आयात कर लगायेगी, न तो आय कर ही। विदेषी पूजीपतियों को आयकर व आयात-निर्यात कर से मुक्त रखना तथा देषी पूंजीपतियों पर ये कर लगाकर रखने की दषा बहुत देर टिक नही पायेगी। क्योंकि बाजार का साझात हो जाने के कारण दोनों एक ही बाजार में अपना माल बेंच रहे हैं।ें जिस प्रकार विदेषी पूंजीपति देष को ब्लैकमेल कर रहा है थोड़ी बहुत देर में उसी प्रकार देषी पूंजीपति भी देष को ब्लैकमेल करेगा। वह सरकार को अपने नियंत्रण की पूंजीं विदेष में लगा देने की धमकी देगा। इस धमकी को देते समय वह ये बात भूल जायेगा कि हमने जो पूंजी बनाई है, उसे पैदा करने के लिए देष के नागरिकों को देषभक्ति की दुहाई दी है, उसे ''स्वदेषी कम्पनी'' की सेवा करने का आह्वाहन किया है। बदले में लोग भूखे पेट देष के नाम पर मेहनत इसलिए किये है कि आपदाकाल में जरुरत पड़ेगी तो ''देष की'' यह पूंजी उनके काम ओयगी। देषभक्ति व स्वदेषी की सरकारी अपील से नागरिक औसत उपभोग से ऊपर के त्याग की बात केवल इसीलिए मान लेते हैं कि आयकर के माध्यम से सरकार कभी भी जनता को उसकी वह कमाई वापस कर सकती है, जब उसे जरूरत हो। देष का नागरिक देष की मुद्रा पर गांधी जी की तस्वीर देख कर पूंजीपति को अपनी पूंजी का ट्रश्टी माना, खून-पसीना बहाया औसत उपभोग भी नही करके भूखे पेट रहा। अगर आज उसका ट्रश्टी उसकी रकम को हड़पना चाहे, मालिकाना का दावा करे, पूंजी को विदेष में लगा देने की धमकी दे, आयकर की जिम्मेदारी अपने कंधे से उठा कर फेंकना चाहे, तो क्या यह बेइमानी नही है? क्या इस तरह के बेइमान देषी व विदेषी पूंजीपतियाेंं को अपने परिश्रम, अपनी इमानदारी व अपनी विनम्रता से अमीर बनाना चाहिये? चूंकि वोटरषिप का प्रस्ताव नामंजूर करने से नागरिकों की यह रकम बेइमान पूंजीपतियों व विष्वव्यापारियों की अमीरी, उपभोग तथा विलास बढायेगी ।  इसलिए इस प्रस्ताव को नकारने का मतलब है, बेइमानी की प्रवृति को प्रोत्साहन।

                (vi)          यह कि यह बात भी पूरी तरह सही नही है कि देष की सरकार देष की भलाई के लिये विदेषी पूंजी को आमंत्रित कर रही है। वस्तुत: देष के व विदेष के विष्वव्यापारियों के दबाव में विष्व व्यापार संगठन का जो समझौता हुआ, उस समझौते के प्रावधानों के अनुरूप अगर विदेष से देष में आकर कोई पूंजीपति पूंजी लगाना चाहे तो उसे रोकने वाले देष के हाथों को विष्व व्यापार संगठन ने काट दिया है। सरकार की संप्रभुता कमजोर पड़ गई, उसका वष विष्व व्यापारियों पर से खत्म हो गया। ऐसे भी कह सकते है कि विष्वव्यापारी अपने-अपने राश्ट्र को ठेंगा दिखाकर विष्व स्तरीय एकता बना लिये। कोई सरकार इतनी ताकतवर है ही नहीं, कि वह इन विष्वव्यापारियों की अराजकता, बेइमानी, ठगी और आर्थिक क्रूरता को रोंक सके। पूरे संसार के लगभग सभी देषों की सरकारे अपने देष के व दूसरे देषों के विष्वव्यापारियों के साझा संगठन की षक्ति के सामने नतमस्तक हैं। दुनिया की देषी सरकारों ने पूरी दुनिया की कोई साझा सरकार बनाया होता तो विष्व की यह साझा सरकार विष्व भर के व्यापारियों को अधिकार के सार्थ क­त्ताव्य करने को भी बाध्य करती। विष्व की साझा सरकार न बनाने के पीछे तीन कारण हो सकते हैं। पहला यह कि षासक के चयन प्रणाली में दोश के कारण लगभग सभी देषों के षासक गण विष्व के इस नवीन घटनाक्रम की षाजिस, उसके परिणामों व उससे बचाव के तरीकों को समझ पाने की  दिमागी योग्यता ही नही रखते। दूसरा यह कि विष्वव्यापारियों ने इन सभी देषों में षासन करने वालों को मालामाल रखने की व्यवस्थागत गारंटी दे दी हो। तीसरा यह कि चन्दे की षक्ति का दुरुपयोग करके चुनावों में अपनी मानसिकता के लोगों को जिताकर अपने एजेण्टों की सरकार बनवा लिया हो। विष्व की साझा सरकार के लिए देषों की सरकारों द्वारा प्रयास न किये जाने के पीछे उक्त तीनों कारणों का मिला जुला प्रभाव भी हो सकता है। चूंकि विदेषी पूंजी नागरिको की इच्छा के विपरीत जबरदस्ती आ रही है, इसलिए वोटरषिप के प्रस्ताव के खिलाफ विदेषी पूंजी का तर्क स्वीकार नही किया जा सकता। विष्व सरकार के गठन के प्रयासों के तहत सरकार क्या कदम उठाये, इस विशय में कार्यान्वयन से संबंधित इस याचिका के अध्याय - 9(2,3) का और  WTO ज्ञापन से संबंधित संलग्नक 11.4 का संदर्भ ग्रहण करे।

                (vii)         यह कि देष में तमाम पूंजी ऐसी है, जिसका सदुपयोग नही हो रहा है। अर्थव्यवस्था के कुप्रबन्धन के कारण तमाम  जमीन खाली पड़ी है, उपयोग नही हो रहा है। तमाम मषीने अपनी क्षमता भर काम नही कर रही है, चुपचाप खड़ी है। तमाम इमारतों के निर्माण में इतनी रकम खर्च हो रही है, जिसके 10 वें हिस्से में ही काम चल सकता था। उपभोक्तावादी लगाम ढ़ीली करने से तमाम ईधन यों ही बर्बाद हो रहा है, जो बचाया जा सकता था। आवासीय मकानों में तमाम कमरे खाली पड़े हैं, उसमें कोई रहता नही। बैकों में तमाम पूंजी पड़ी है, जिसे कोई लेने वाला नही, इसलिए ब्याज दर गिरती जा रही है। आंख से प्रत्यक्ष दिख रही इस पूंजी का उपयोग न करके विदेषी पूंजी को देष के लिए आवष्यक बताने की वकालत करने का प्रयास देष की षुभचिन्ता से नही, वकालत की फीस व स्वार्थ के कारण ही प्रेरित हो सकता है। इसलिए वोटरषिप के खिलाफ विदेषी पूंजी के पलायन का तर्क स्वीकार नही हो सकता।

       उक्त बिन्दु (i) से (vii) तक के तर्कों, सूचनाओंं व विष्लेशण के आधार पर ''विदेषी पूंजी का आना कमजोर पड़ जायेगा'' - इस तर्क को वोटरषिप के प्रस्ताव के खिलाफ स्वीकार नही किया जा सकता।

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